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________________ १५४] जैनधर्म-मीमांसा इनके पाप का प्रतिकार भी कठिन होता है। धन में जो धन को पैदा करने की शक्ति है, वह कभी नष्ट हो सकेगी या नहीं यह कहना कठिन है; परन्तु परस्पर सहयोग के जिस तत्व पर समाज की रचना हुई है, उसके यह विपरीत है इसीलिय यह पाप है। यह बात दूसरी है कि अधिकांश लोग इसे पाप नहीं समझते, परन्तु इससे तो सिर्फ यही सिद्ध होता है कि समाज में अभी बहुत-सी जड़ता बाकी है । बहुत-सी जङ्गली जातियाँ ऐसी है जिनमें किसी मनुष्य को मार डालना और खा जाना बहुत साधारण बात है, वे इसे पाप नहीं समझतीं । हमारे पूर्वज भी किसी समय हिंसा का पाप नहीं समझते थे । धीरे धीरे उनमें से कुछ विचारशील लोगों ने हिंसा को पाप समझा, परन्तु उनकी समझ को अपनाने में समाज ने शताब्दियाँ नहीं, सहस्राब्दियाँ लगाई हैं। परिग्रह के पाप को पापरूप में घोषित कर देने पर भी इसको अभी समाज ने नहीं अपना पाया है। परन्तु एक न एक दिन वह इसे भी अपना लगी। हिंसा आदि को पापरूप में स्वीकार कर लेने पर भी हिंसा सरकार को ऋण देने के लिये ऋणपत्र [बौंड | खरीदे थे, वे सब यही चाहते थे कि जैसे बने वैसे फ्रांस की सरकार मोरको पर अपना प्रभाव कायम रक्खे, इसलिये वे फ्रान्स की सरकार के अत्याचारों का भी समर्थन करते थे । अगर किसी एक ही श्रीमान ने यह ऋण दिया होता तो अधिकांश किसानों और मजदूरों की सहानुभूति मोरको की तरफ होती।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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