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________________ १४६] [जैन-धर्म-मीमांसा अच्छा है परन्तु उसके ऊपर व्यक्ति विशेष की ठेकेदारी होना ही दुःखद है । विवश होकर यह व्यवस्था अपनाना पड़े यह ठीक है, परन्तु इसे आदर्श नहीं कह सकते । सफल साम्यवादी समाज में श्रीमानों का और दानवीरों का जितना अभाव होता है उससे भी बड़ा अभाव उनकी आवश्यकता का होता है । दानियाँका होना अच्छा है परन्तु भिखमंगों का न होना इससे हमार गुणा अच्छा है। अभी तक के विवेचन से इतनी बात समझ में आ गई होगी कि परिग्रह किस प्रकार अन्याय है, विश्वास घात आदि दोष उस में किस प्रकार जड़ जमाये बैठे हैं, समाज के असली ध्येय को वह किस प्रकार नष्ट करता है । परन्तु इसमें अभी एक और भयंकर दोष है जो कि अनेक आत्याचारों को जन्म देता है। पहिले कहा जा चुका है कि हमें अधिक सेवा करके अधिक सेवा लेने का ही अधिकार है, उसके प्रमाणपत्र रूप जो सम्पत्ति समाज ने हमारे पास रक्खी है उसको अनिश्चितकाल के लिये दबा रखने का नहीं । अगर हम दबा रखते है तो विश्वासघात करते हैं । परन्तु यह विश्वासघात उस समय एक प्रकार के अत्याचार में परिणत हो जाता है, जब हम उस संग्रहीत धन को भी धनार्जन का उपाय बना लेते हैं । हमको जो धन मिला है वह सेवा के बदले में मिला है। सेवा के बदले में धन लेना उचित है परन्तु हमारे पास धन है इसलिये बिना सेवा किये ही हमें और धन दो, यह कहना अनुचित है। परन्तु होता यही है । हम मकान बनवाकर जो उसके भाई से आमदनी करते हैं, कारखानों के शेयर (हिस्से) लेकर या ब्याज पर रुपये देकर जो
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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