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________________ अपरिग्रह [१४१ तरह जीवन निर्वाह करके बची हुई सम्पत्ति शुभ-दान में लगा देता है - यह दूसरे नम्बर का अपरिग्रही है। ३-समाजको मेवा करके यथोचित धन लेनेगला (दूसरी श्रेणी के समान) अगर इस आशय से धन का संग्रह करता है कि इससे मैं भविष्य में अपना जीवन निर्वाह करता हुआ बिना किसी बदले के समाज की सेवा करूँगा, अपने जीवन-निर्वाह का बोझ भी समाज पर न डालूंगा, मरने के बाद मेरी ग्रहीत सम्पत्ति समाज की ही होगी, तो यह तीसरी श्रेणी का अपरिग्रही बनता है । ४-न्याय-मार्ग से धन पैदा करनेवाला भोग करके अपने और अपनी सन्तान के लिये धन का इतना संग्रह करता है जितना उस की सन्तान की शिक्षा और सन्तान की नाबालिग अवस्था में जीवन-निर्वाह के लिये आवश्यक है, तो वह चौथी श्रेणी का अपरिग्रहा है। ५-पूर्वजों से उत्तराधिकारित्व में उसे बहुत धन मिला हुआ है इसलिये उसके पास धन का संग्रह है । अब वह इसमें जितना बढ़ाता है उतना किसी न किसी उचित उपाय से खर्च कर डालता है, मूलधन को भी शुभ-दान में लगाता है, वह पाँचवी श्रेणी का अपरिगही है। ६-पाँचवी श्रेणी का अपरिग्रही अगर मूलधन को संग्रहीत रखता है किन्तु बाकी आमदनी खर्च कर डालता है तो वह छट्ठी श्रेणी का अपरिग्रही है। ' . उपर्युक्त सभी श्रेर्णावाले समाज को सम्पत्ति बढ़ाने के लिये उद्योग धन्धों के न्यायोचित प्रचार में पूर्ण सहयोग कर सकते
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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