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________________ १३६] ( जैन धर्म-मीमांसा तो यह कि उसने जितना अधिक काम किया है उसके बदले में उसका कुछ अधिक काम कर दिया जाय । उदाहरणार्थ, अगर वह अधिक परिश्रम करने से थक गया है तो उसके शरीर में मालिश कर दिया जाय, लेटने के लिये दूसरों की अपेक्षा अच्छा पलंग आदि दिया जाय आदि; दुसरा उपाय यह था कि उससे दूसरे दिन काम न लिया जाय और उसे भोगोपभोग की सामग्री दूसरे दिन भी दी जाय । बस, यहीं से परिग्रह का प्रारम्भ होता है । कोई कोई लोग कहने लगे कि अमुक मनुष्य को एक दिन के काम में अगर दो दिन की सामग्री दी गई है तो मेरा काम तो उससे बहुत अच्छा है, मैं चार दिन की लूगा । इस प्रकार यह संख्या बढ़ती ही गई। दूसरी तरफ एक अनर्थ और हुआ। लोगों ने यह सोचा कि एक दिन काम करके चार दिन आगम करने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि दस बीस वर्ष काम कर के शेष जीवन आराम किया जाय । परन्तु मरने का तो कुछ निश्चय न था, इसलिये लोग जिन्दगी-भर संग्रह करने लगे। खैर, यहाँ तक भी कुछ हर्ज नहीं था, अगर वे लोग इस संग्रहीत धन को भोग डाळते या मरते समय समाज को ही दे जाते । परन्तु इसी समय मनुष्य के हृदय में अनंत जीवन की लालसा जागृत हई । उसने अपने स्थान पर पुत्र को स्थापित किया और अपनी संग्रहीत संपत्ति उसे दे दी। कहने को तो यह काम कानूनी था परन्तु इस कानून की जो मंशा थी उसकी इसमें पूरी हत्या हो गई थी । समाज के विधान की मंशा तो यह थी कि जिसने अपनी योग्यतासे अधिक
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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