SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यकचारित्र का रूप ] [ ३ चारित्र का वर्णन किया जाता है । और जब जहां निवृत्ति की ओट में जड़ता, अकर्मण्यता, हरामखोरी आदि दोष आजाते हैं तब वहां प्रवृत्तिमें चारित्र का वर्णन किया जाता है । मुख्य बात जगत्-कल्याण है, अनेकान्त दृष्टि दोनों का समन्वय करती है। रूप I जैनाचार्यों ने चारित्र की व्याख्या ऐसे ही व्यापक रूपमें की है । उनके अनुसार चारित्र का अर्थ है चलना । किसी ध्येय के लिये जब हम चलते हैं तब वह चारित्र कहलाता है । जब वह चना विश्वसुख के अनुरूप होता है तब वह सम्यक्चारित्र कह लाता है । जैनधर्म की जब स्थापना हुई तब निवृत्ति की आवश्यकता अधिक थी इसलिये निवृत्ति पर बहुत जोर दिया गया । दूसरी बात यह है कि जीवन स्वभाव से ही प्रवृत्तिमय है, वह अच्छे बुरे सब कामों में प्रवृत्ति करता रहता है अगर बुरे काम से निवृत्ति करदी जाय तो अच्छे काम में प्रवृत्ति सहज ही होती रहती हैं इसलिये निवृत्ति पर जोर दिया जाता है । चारित्र को बनाने में निवृत्ति का इतना बड़ा हाथ है कि चारित्र और संयम पर्यायवाची शब्द बन गये हैं, अन्यथा संयम तो चारित्र का एक पहलू है । बल्कि मूल अर्थ तो इनका कुछ विरोधी सा है | चारित्र का अर्थ चलना है संयम * का अर्थ रुकना है । प्रश्न -- चारित्र और संयम में जब इतना अन्तर है तब दोनों को एकरूप कहने का कारण क्या है ? उत्तर - संस्कृत में बिजली के विद्युत्, चपला आदि अनेक | चरति चर्यते अनेन चरणमात्रं वा चारित्रम - सर्वार्थसिद्धि १ - १ | * यम उमरमे ( to check to stop )
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy