SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४] [जैन-धर्म-मीमांसा आदि जिस प्रकार दुःख के कारण हैं और साक्षात् दुःखस्वरूप हैं उतना मैथुन नहीं है, और न वह भोजनादि की श्रेणी में ही आता हैं । उसका स्थान मध्य में है । हाँ, अगर वह अन्य पापों से मिश्रित हो जाय तो उसकी पापता बहुत भयंकर होजाती है, तथा अन्य भोगोपभोग सामग्रियों की अपेक्षा इसमें आरम्भ परिग्रह की वृद्धि भी बहुत होती है या होने का अधिक सम्भवना है । ब्रह्मचर्य के मुख्य तीन प्रयोजन हैं १- शक्ति का संचय या उसकी रक्षा, २-कौटुबिक और सामाजिक जीवन की शान्ति, ३-विश्वप्रेम या समभाव की रक्षा । १-शरीर में बहुमूल्य धातु वीर्य है । मैथुन में पुरुष-स्त्री के दशीर का यही बहुमूल्य धन नष्ट होता है । अगर इसकी रक्षा की जाय ता शरीर की शक्ति सुरक्षित रहती है तथा बढ़नी है । शारीरिक शक्ति के साथ मानसिक शक्ति पर इसका प्रभाव और भी अधिक पड़ता है । अन्य प. की अपेक्षा मैथुनका मन से अधिक सम्बन्ध है । मनमें दूसरा पाप होनेसे मन चित्र होता है परन्तु उसका वाश्य प्रभाव उल्लेखनीय नहीं होता, जब कि मानसिक थुनका बाह्यप्रभाव बहुत अधिक होता है । इससे वर्यिका स्खलन होता है और शरीर कमजोर होजाता है । इसलिये नहर से ही मैथुन का त्यागी अगर मनको वशमें नहीं रखता तो यह ब्रह्मचारी तो है ही नहीं, साथ ही बाहिरी ब्रह्मचीका बाहिरी फल भी प्राप्त नहीं कर सकता । विवाहित जीवन में पति पत्नी में परिमित ब्रह्मचर्य का पालन होता है । वह भी शक्तिसंचय का कारण है । परन्तु अगर
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy