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________________ ६६ ] चौथा अध्याय व्यापार विद्यामें, एक अंश कला आदि की जानकारी में, एक अंश काव्य में, एक अंश अन्य प्रकीर्णक बातों में । अब एक दूसरा ज्ञानी है, उसके भी पाँचअंश वाला ज्ञान है । परन्तु उसने अपने अंशों को किसी दूसरे ही काममें लगाया है । इसी प्रकार कोई तीसरा ज्ञानी है जिसने कि अपने ज्ञानांशों का उपयोग किसी तीसरे ही क्षेत्रमें लगाया है । इस प्रकार पाँच अंशवाले ज्ञानका उपयोग सैकड़ों तरह से हो सकता है । अब एक ऐसे मनुष्य को लीजिये जिसके छः अंशवाला ज्ञान है । उसका ज्ञान पाँच अंश वाले से अधिक अवश्य है परन्तु जितने पाँचअंश ज्ञानवाले हैं उन सबसे अधिक नहीं है, क्योंकि पाँच अशवाले सभी ज्ञानियों के ज्ञानको एकत्रित करो तो वह सैकड़ों अंशका हो जायगा, और १०० अंशवाला ज्ञानी भी उन सबको न जान पायगा । यह भी हो सकता है कि पाँच अंशवाले का कोई ज्ञानांश छः अंशवाले के न हो फिर भी छः अंशवाला बड़ा ज्ञानी है क्योंकि पाँच अंश वाले के अगर कोई एक अंश नया है तो छः अंशवाले के दो अंश नये हैं । यही उसकी महत्ता है । इसी प्रकार सब से बड़ा ज्ञानी (१०० अंशवाला ) भी पाँच अंशवाले की किसी बात से अपरिचित रह सकता है । परन्तु १०० अंश वाला अगर एक अंश से अपरिचित रहेगा तो पाँच अंशवाला ९६ अंशों से अपरिचित रहेगा । यही १०० अंशवाले की महत्ता है । इस प्रकार सब से बड़ा ज्ञानी होकर के भी कोई वर्तमान मान्यता का कल्पित सर्वज्ञ न बन सकेगा । स्पष्टता के लिये एक उदाहरण और देखिये । कल्पना कीजिये कि कोई करोड़पति सब से बड़ा धनवान है । उस नगर में बाकी
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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