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________________ ६४ चौथा अध्याय . अनुसार परमिमित्तक तरतमता भी अनन्त होती हैं, जैसे पुद्गल स्कंधों में न्यूनाधिक परमाणु रहते हैं, यह तरतरता परनिमित्तक है फिर भी इनमें अनन्त परमाणु पाये जाते हैं। [मैं पुद्गलस्कंधों में अनन्त परमाणु नहीं मानता, असंख्य मानता हूँ। इस विषयका विवेचन आगामी किसी अध्याय में होगा । यहाँ पर तो वर्तमान जैन शास्त्रों की इस मान्यता को इसलिये उद्धृत किया है जिससे इस मान्यतावालों का समाधान हो ।] इस प्रकार परनिमित्तक स्वनिमित्तक तरतमताओं का सान्त-अनन्त के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । इसलिये ज्ञानमें तरतमता होने से के ई ज्ञानी अनन्तज्ञानी या सर्वज्ञ होगा, यह कदापि नहीं कहा जा सकता। इस विषय में एक दूसरी दृष्टि से भी विचार करना चाहिये । जब ज्ञान में तरतनता है तब कोई सब से बड़ी ज्ञानशक्तिवाला अवश्य होगा। परन्तु सब से बड़ी ज्ञानशक्तिवाला छोटी ज्ञानशक्ति वाले के विषय को अवश्य जाने, यह नहीं हो सकता। इसके लिये एक उदाहरण लीजिये । एक ऐसा विद्वान है जो संस्कृत, प्राकृत बंगाली, हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के साथ न्याय, व्याकरण, काव्य, सिद्धान्त, इतिहास, अर्थशास्त्र आदि विषयों का पारंगत विद्वान है, परन्तु वह मराठी भाषा बिलकुल नहीं जानता । अब एक किसी ऐसी स्त्रीको लीजिये जो बिलकुल अशिक्षित है किन्तु मराठी भाषा को जानती है। अब इन दोनों में ज्यादः ज्ञानशक्ति किसकी है ? दोनों के ज्ञान में तातमता तो अवश्य है। अगर यह कहा जाय कि उस स्त्री का ज्ञान अधिक है, तो वह संस्कृत प्राकृत से अनभिज्ञ क्यों है ? इसलिये कुतर्क छोड़कर उसी विद्वानको अधिक ज्ञानी कहा
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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