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________________ ५४ ] चौथा अध्याय तरह समझ में आजाता है। फिर भी स्पष्टता के लिये यहां उन युक्तम्याभासों की आलोचना की जाती है जिनके बलपर लोग उक्त सर्वज्ञता की सिद्धि का रिवाज पूरा कर डालते हैं । पहिला युक्त्याभास सूक्ष्म ( परमाणु आदि ) अन्तरित ( रावणादि ) आदि ] पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं क्योंकि अनुमान के जैसे अभि, इस प्रकार सर्वज्ञ की सिद्धि हो गई । * दूर मेरु विषय हैं आग जल इसमें पहिली आपत्ति तो यह है कि इसमें अनुमेयत्व की व्याप्तिही असिद्ध है । जो अनुमान वह प्रत्यक्ष का विषय होना ही चाहिये ऐसा यदि यह अनुमान बन सकता था। एक बंद कमरे में अगर चुकी हो जहां कोई देखनेवाला न रहा हो तो आग बुझने पर वहां भरे हुए धुएँ से या राख के ढेर से हम अग्नि का अनुमान कर सकते हैं । इसके लिये यह आवश्यक नहीं कि यदि उस अग्नि को किसी ने या हमने देख लिया होता तो अनुमान का विषय होता नहीं तो नहीं। इस प्रकार जब निर्विवाद वस्तुओं में प्रत्यक्षत्व अनुमेयत्व की व्याप्ति नहीं बनती तब उसका उपयोग विवादापन्न सूक्ष्मादि पदार्थों में कैसे बन सकता है ? प्रत्यक्षत्व और विषय हो होता तो का नियम प्रश्न- कमरे की अभि को भले ही किसीने न देख पाया हो परन्तु कहीं न कहीं की अग्निको तो किसीने देखा है । सूक्ष्मान्तारित दूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतो ऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ देवागंन
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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