SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तभंगी [ ३० सप्तभंगी का वास्तविक रूप वही है जो मैंने ऊपर बतलाया है । वह व्यवहार्य और युक्तिसंगत तो है ही, साथ ही समन्वय और समभाव की दृष्टि से कल्याणकारी भी है । पहिले पहल किसी जैनाचार्य से अवक्तव्य भंग के स्वरूप में भूल हुई है और परम्परा को सुरक्षित रखने के लिये उस भूल की परम्परा निर्द्वन्दभाव से चली आई है । नहीं तो अवक्तव्यभंग के स्वरूप - विचार में ऊपर की चार बातें इतनी जबर्दस्त हैं कि वे अवक्तव्यभंग की वर्तमान मान्यता को किसी तरह नहीं टिकने देतीं । इस प्रकार आज सप्तभंगी के स्वरूप में दो प्रकार के संशोधनों की आवश्यकता है । पहिला अवक्तव्य के विकृत लक्षण को दूर करके उसे ठीक कर लेना; दूसरा- उसका उपयोग कर्तव्य आदि धार्मिक तत्वोंके त्रिवेचन में करना, जिसमें सामदायिक कट्टरता और अहंकार को हटाकर कर्तव्य मार्ग का वास्तविक ज्ञान हो । इस प्रकार के संशोधन होजाँय तो सप्तभंगी की वास्तविक उपयोगिता प्रगट हो जाय । सप्तभंगी का सिद्धांत बहुत उच्च और कल्याणकारी है । कह नहीं सकते कि यह सप्तभंगी म० महावीर ने प्रचलित की थी या इसका विकास पीछे हुआ । परन्तु यह बात कुछ ठीक मालूम होती है कि यह सप्तभंगी पहिले त्रिभंगी के रूप में थी ( अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य ) । भगवती सूत्रमें त्रिभंगी के रूपमें ही इसका उल्लेख मिलता है । परन्तु त्रिभंगी और सप्तभंगी में विशेष अंतर नहीं है; त्रिभंगी की विशेष व्याख्या सप्तभंगी है । इस सप्तभंगी का सिद्धांत व्यावहारिक और बिलकुल बुद्धिगम्य होने पर भी साम्प्रदायिक पक्षपात के कारण अनेक प्राचीन आचार्ये
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy