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________________ मनापर्यय ज्ञान [४११ असंयमी न रह सके । संयमी हो जाने पर भी मनावत्तियों का साक्षात्कार अनिवार्य नहीं है । जैसे स्वास्थ्य-रक्षाके लिये पथ्यसे रहना एक बात है और वैद्य हो जाना दूसरी बात । उसी प्रकार संयमी होना एक बात है और मनःपर्ययज्ञानी होना दूसरी बात है। मनःपर्ययज्ञानी होने के लिये संयम की जो शर्त लगाई गई है उससे उसके वास्तविक स्वरूपका संकेत मिलता है। उपर्युक्त विवेचन उसी संकेतका फल है । उपर्युक्त विवेचनका पूरा मर्म अनुभवगम्य है। अवधि और मनःपर्यय के भेद प्रमेदों का बहुत ही विस्तृत वर्णन जैनशास्त्रों में पाया जाता है । उनमें परस्पर मतभेद भी बहुत है। परन्तु ज्ञान के प्रकरण में अवधि और मनःपर्यय का स्थान इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जिससे यहाँ उनकी विस्तार से आलोचना की जाय । संक्षेप में यहाँ इतना ही कहा जा सकता है कि उनके ऊपर अलौकिकता का जितना रंग चढ़ाया गया है वह कृत्रिम है और उनके वास्तविक रूपको छुपाने वाला है । केवलज्ञान इसके विस्तृत वर्णन के लिये चौथा अध्याय लिखा गया है। यहाँ तो सिर्फ खानापूर्ति के लिये कुछ लिखा जाता है । शुद्धात्मज्ञान की पराकाष्ठा केवलज्ञान है । जीवन्मुक्त अवस्था में जो आत्मानुभव होता है उसे केवलज्ञान कहते हैं । केवलज्ञानी को फिर कुछ जानने योग्य नहीं रहता, इसलिये उसे सर्वज्ञ भी कहते हैं । रुतकेवली और केवली में सिर्फ इतना ही अन्तर है कि जिस बात को रुतकेवली शास्त्र से जानता है, उसी बातको केवली
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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