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________________ ३९२ ] पाँचवाँ अध्याय अवधिज्ञानके द्वारा हम स्वर्ग नरक तथा लाखों वर्ष पुरानी घटनाओं का तथा लाखों वर्ष बाद होनेवाली घटनाओं का प्रत्यक्ष कर सकते हैं । परन्तु मैं चौथे अध्याय में सिद्ध कर आया हूं कि भूत भविष्य का प्रत्यक्ष असम्भव है, क्योंकि जो वस्तु है ही नहीं, उसका प्रत्यक्ष कैसा ? आदि। जैनशास्त्रोंके देखने से हमें इस बात का आभास मिलता है कि शानों में जो अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञानका विशाल विषय बतलाया गया है वह ठीक नहीं है, बिलकुल कल्पित है। कल्पित कथाओं को छोड़ कर ऐतिहासिक घटनाओं में उसका जरा भी परिचय नहीं मिलता बल्कि इस ढंग का वर्णन मिलता है जिसस मालूम हो जाय कि अवधि मनःपर्यय की उपयोगिता कुछ दूसरी ही है। यहां मैं एक दो दृष्टान्त देता हूं। __ उवासगदसा के आनन्द-अध्ययन का वर्णन है कि एकबार इन्द्रभूति गौतम आनन्द श्रावक की प्रोषधशाला में गये। उस समय आनन्द ने समाधिमरण के लिये संथारा लिया था। आनंद ने गौतम को नमस्कार करके पूछा--- भगवन् ! क्या गृहस्थ को घर में रहते अवधिज्ञान हो सकता है ! ..... .... . .. .. • गौतम हो ककता है। आनन्द-मुझे भी अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है। मैं पांचसौ योजनतक लक्णसमुद्रमें देख सकता हूं और लोलुपचय नरक · तक भी।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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