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________________ ३७८ ] . पाचवाँ अध्याय २.-चतुर्विशस्तव- इसमें चौवीस तीर्थकरोंकी स्तुतियाँ हैं । ३.-वंदना-इसमें चैत्य, चैत्यालय आदिकी स्तुतियाँ हैं । ४-प्रतिक्रमण -इसमें देबसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुसिक, सांवत्सरिक, ऐपिथिक (गमनका प्रतिक्रमण), उत्तमार्थ [सर्व पर्यायका प्रतिक्रमण) इस प्रकार सात प्रकार के प्रतिक्रमणका वर्णन है । ५-वैनयिक---इसमें ज्ञान--विनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपेविनय, उपचारविनय, इसप्रकार पाँच प्रकारके विनय का वर्णन है। ६. कृतिकर्म-इसमें विनय आदि बाह्य क्रियाओं, प्रदक्षिणा देना, नमस्कार करना आदि का वर्णन है । -दशवकालिक-मुनियोंके आचारका वर्णन है। ८-,उत्तराध्ययन-इसमें उपसर्ग परीषह सहनकरने वालों का वर्णन है। दशवैवालिक और उत्तराध्यन श्वेताम्बर संप्रदायमें बहुत प्रसिद्ध और प्रचलित सूत्र हैं । दिगम्बर सम्प्रदायमें ये सत्र भी उपलब्ध नहीं होते, यह अत्यंत आश्चर्य और खेदकी बात है । मूलसूत्र(अंगप्रविष्ट) विशाल होनेसे सुरक्षित नहीं रहसकता तो किसी तरह यह क्षन्तव्य है, परन्तु अंगबाह्य भी अगर नामशेष होगया तब तो हद ही हो गई। ९.-कल्यव्यहार-इसमें साधुओंके योग्य अनुष्ठानका तथा अयोग्यके प्रायश्चित्तका वर्णन है। १०-कल्प्याकल्प्य-कौनसा कार्य कब कहाँ उचित है और वही कहाँ अनुचित है, इस प्रकार द्रव्यक्षेत्रकालभावके अनुसार मुनियोंके योग्यायोग्य कार्यका निरूपण है।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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