SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रुतज्ञान के भेद [ ३७१ में इतिहास इस तरह मिल गया है कि उसका विश्लेषण करना कठिन अवश्य है; फिर भी निःपक्षता से जाँच की जाय हो जायगा कि श्रद्धालु लोग जिसे इतिहास समझते ऐतिहासिक मूल्य आजकल के उपन्यासों से भी बहुत कम है । हाँ, वे धर्मशास्त्र अवश्य हैं। अनेक कथाकारों की प्रशंसा मुक्तकंठ से करना पड़ती है । तो मालूम हैं, उसका अन्त में यह बात फिर कहना पड़ती है कि हमारा कथासाहित्य आखिर धर्मशास्त्र है, और उसे धर्मशास्त्र की दृष्टि से ही देखना चाहिये । ऐतिहासिक दृष्टि से वह भले ही सत्य, असत्य या अर्धसत्य रहें, परन्तु इससे उस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता । हाँ, अगर किसी कथा से असत्य उपदेश मिलता हो तो उसे असत्य कहना चाहिये । अन्यथा इतिहास की दृष्टि से असत्य होने पर भी वह सत्य है | गणितानुयोग - यद्यपि यह प्रथमानुयोग का प्रकरण है, परन्तु जो बात प्रथमानुयोग के विषय में कही गई है वही गणितानुयोग के विषय में भी कही जा सकती है । इसलिये उसका उल्लेख भी यहां अनुचित नहीं है। जिस प्रकार प्रथमानुयोग इतिहास नहीं, धर्मशास्त्र है, उसी प्रकार गणितानुयोग भूगोल नहीं, धर्मशास्त्र है । धर्मशास्त्र का काम प्राणी को सुखी बनाने के चारी बनाना है । सदाचार का फल सुख है और फल दुःख है, इस बात को अच्छी तरह से समझाने प्रकार कथाओं की आवश्यकता है उसी प्रकार भूगोल अथवा लिये सदा दुराचार का के लिये जिस "
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy