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________________ ३६४ ) पाचंवाँ अध्याय चित्रित करता है । अगर वह शूद्रों को समानाधिकार देना चाहता है तब वह ऐसी कथाएं बनाता है जिनमें शूद्रोंने तप किया है, धर्म का पालन किया है, स्वर्ग मोक्ष पाया है। कवि का यह आशय ही कथा का प्राण होता है । जो लोग कथा को इतिहास मानते हैं, वे कवि के आशय की अवहेलना करते हैं और सत्यसे वंचित रहते हैं। यह याद रखना चाहिये कि इतिहास आदर्श नहीं होता, किन्तु कथा आदर्श का प्रदर्शन करने के लिये बनाई जाती है । इसी क्षेत्र में उसकी उपयोगिता है और इसी दृष्टि से वह सत्य या असत्य होती है। मेरे इस वक्तव्य का समर्थन भावदेव कृत पार्श्वनाथ चरित के निम्न लिखित वक्तव्य [१] से भी होता है। "उदाहरण दो तरह के हैं, चरित और कल्पित । जिस प्रकार भातके लिये इंधन की आवश्यकता है उसी प्रकार अर्थ की सिद्धि के लिये अर्थात् दूसरे को समझाने के लिये ये उदाहरण हैं । अथवा काल अनादि है, जीवों के कर्म भी विचित्र हैं, इसलिये ऐसी कौनसी घटना है जो इस संसार में संभव न हो।" ऊपर के वक्तव्य से कथानकों का एतिहासिक मुल्य अच्छी तरह से समझा जा सकता है। (१) चरितं कल्पितं चापि द्विधोदाहरणं मतम् । परस्मिन् साध्यमानार्थस्यौदनस्य यथेन्धनम् ।१७। अथवोक्तम् अनादि निधने काल जांवाना नि कर्मणा ! संधान हि तन्नास्ति संसार यन्न संमवत् १८१
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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