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________________ श्रुतज्ञान के भेद [३२३ नहीं कर सकता । उसकी दृष्टि में दोनों एक समान हैं, इसलिये दोनोंके अणुव्रत भी एक सरीखे हैं । उपासकदशा में उपासिकाओं के वर्णन में, सम्भव है ऐसे चित्रण आये हों जो म. महावीर के जैनधर्म के अनुकूल किन्तु प्रचलित लोक व्यवहार के प्रतिकूल हों इसलिये उपासिकाओं के चरित्र न रहने दिये गये हों। यहां एक प्रक्ष यह होता है कि जैन शास्त्रों में अन्यत्र खी पुरुषों के चरित्रा एक सरीखे मिलते हैं । उदाहरणार्थ 'गायधम्मकहा' के अपरकका अध्ययन में द्रौपदीने पांच पतियों का वरण किया, यह बात बहुत स्पष्टरूप में और बिलकुल निःसंकोच भावसे कही गई है । ऐसी हालत में 'उपासकदशा' में भी यदि ऐसा वर्णन कदाचित् था तो उसके हटाने की क्या जरूरत थी ! . यह प्रश्न बिलकुल निर्जीव नहीं है, परन्तु इसका समाधान भी हो सकता है । मैं कह चुका हूं कि 'णायधम्मकहा' में किसी एक बात को लक्ष्य में लेकर एक कथा दृष्टान्तरूप में उपस्थित की जाती है। उस कथा के अन्य भागों से विशेष मतलब नहीं रक्खा जाता है, परन्तु वह कथा जिस बात का उदाहरण है उसी पर ध्यान दिया जाता है । अपरकंका अध्ययन का लक्ष्य निदान की निन्दा करना [१] है अथवा बुरी वस्तुका बुरे ढंग से दान देने का कुफल बतलाया है । इसलिये पांच पतिवाली बात प्रकरणबाह्य या (१) सुबहुंपि तवाकरलेसो नियामदोसण लूसियो संतो । न सिवाय दोवतीए जह किल सुकमालिया जन्मः ।। अमणुन्नममचीए पत्ते दामं भवे अणत्थाय । जह कडय तुंबदाणं नागसिरि भवान्म दोषइए ... -णायधम्मकहा १६ अध्ययन अभयदेव सका। -
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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