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________________ श्रुतज्ञान के मेद [३१७ - नाम 'णायधम्मकहा' सर्वोत्तम मालूम होता है । परन्तु इसके संस्कृतरूप और उनके अर्थ भी अनेक हैं । णायधम्मकहाके संस्कृतरूप ज्ञातृधर्मकथा, ज्ञातधर्मकथा, न्यायधर्मकथा आदि होते हैं। फिर शब्दोंके अर्थमें भी बहुत अन्तर है । एक अर्थ है ज्ञात अर्थात् उदाहरण; उदाहरण (१) प्रधान धर्मकथाएँ जिसमें हों वह अंग । दूसरा अर्थ है--जिसके प्रथम श्रुतस्कंधमें ज्ञात-उदाहरण हों और दूसरे रुतस्कधमें धर्मकथाएँ हों, वह (२) अंग । राजवार्त्तिककार (३) सिर्फ इतना है। कहते हैं कि जिसमें बहुतसे आख्यान-उपाख्यान हों । कुछ लोग णायका अर्थ ज्ञात अर्थात् महावीर करते हैं । इन सब कथनोंसे यह स्पष्ट है कि इसके दो अर्थ मुख्य और बहुसम्मत हैं। प्रथम के अनुसार इसमें तीर्थंकरोंका या म. महावीरका वर्णन है या उनसे सम्बन्ध रखनेवाली कथाएँ हैं, दूसरे के अनुसार उदाहरणरूप धर्मकथाएँ इसमें हैं । पहिला अर्थ कुछ ठीक नहीं मालूम होता क्योंकि उपलब्ध अंगमें म. महावीर से संबंध रखनेवाली धर्मकथाएँ ही नहीं हैं, किन्तु अधिकांश कथाएँ दूसरी ही हैं; बल्कि किसी भी कथा के मुख्यपात्र म. महावीर नहीं है । अगर कहाजाय कि ये कथाएँ महावीर के द्वारा कहीं गई हैं, इसलिये इन्हें महावीरकी कथाएँ कहना चाहिये, तो - (१) शातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा शाताधर्मकथा। ... पृषोदरादित्वात्पूर्वपदस्य दीर्घाचता । -नन्दीवृत्ति ५० । (२) सातानि साताध्ययनानि प्रथम श्रुतस्कंधे धर्मकथा द्वितीयश्रूतस्कंधं । -नन्दावाति सूत्र ५. । (३) मातृधर्मकथायां आख्यानोपाख्यानानाम् बहुप्रकाराणां कथन । ܙ ܕܕ ܀ ? ܕ .܂
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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