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________________ श्रुतज्ञान के मेद [ २९९ प्रविष्ट, बाक़ी अंगबाह्य । मुसलमानों में कुरान अंगप्रविष्ट, बाकी अंगबाह्य । इसी प्रकार अन्य सम्प्रदायों के शास्त्रों को भी समझना चाहिये । लौकिक शास्त्रों में भी ये भेद लगाये जा सकते हैं । जिसने स्वयं किसी वस्तुका आविष्कार किया है उसके वचन अंगप्रविष्ट हैं और उसके ग्रंथों के आधार पर लिखने वालों के वचन अंगबाह्य हैं । मतलब यह है कि किसी भी विषय के मूल ग्रंथों को अंगप्रविष्ट और उत्तरग्रन्थों को अंगबाह्य कह सकते हैं। सामान्य श्रुत के समान अंगप्रविष्ट अंगबाह्य के भी सम्यक् और मिथ्या दो भेद हैं । 1 जैनियों का अंगप्रविष्ट साहित्य आज उपलब्ध नहीं है, और ऊपर जो मैंने अंगप्रविष्ट की व्याख्या की है उसके अनुसार तो वह म. महावीर के शब्दोंके साथ ही विलीन हो गया है । उस समय के धर्मप्रवर्तक पुस्तक नहीं लिखते थे और लेखन के साधन इतने कम थे कि उस समय किसी के उपदेशों का लिखना कठिन था । मालूम होता है कि उस समय तालपत्रका उपयोग करना भी लोग न जानते थे, या बहुत कम जानते थे । ब्राह्मी आदि लिपियाँ तो उस समय अवश्य प्रचलित थीं, परन्तु वे शायद ईंटों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों आदि पर ही काम में आती थीं। अगर लिखना इतना दुर्लभ न होता तो कोई कारण नहीं था कि जैन साहित्य म. महावीर के समय में ही न लिखा जाता । श्रेणिक और कुणिक सररखे महाराजा जैनश्रुत को लिपिबद्ध न कराते, यह आश्चर्य ही कहलाता । शास्त्रों को जो श्रुति स्मृति कहा जाता है उससे भी
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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