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________________ मनोवैज्ञानिक इतिहास अन्याय को रोककर मनुष्य को सुरली बनाने के लिये सदाचार-धर्मकी सृष्टि हुई । इन नियमों का पाउन करने के लिओ जगलियन्ता ईश्वर कल्पित किया गया । उसके जगनियन्तृत्व के लिये सर्वज्ञता आई । जिनने ईश्वर. नहीं माना; उनने विधी समस्या सुलझाने का तथा सदाचार आदि के. स्थिर रखने का स्वतन्त्र प्रयत्न. किया किन्तु उसकी प्रामाणिकता के लिये सर्वज्ञ योगियों की कल्पना की इस तरह ईश्वर की सर्वज्ञता का प्रतिबिंब अनीश्वरवादी योगियों पर पड़ा । परन्तु अगम्य होने से ईश्वरवादियों को भी सहयोगी माननाः पड़े । बाद में सर्वज्ञवाद पर जब अनेक तरह के आक्षेप हुए तब. सर्वज्ञता के अनेक भेद हो गये और अन्त में घोर अन्धश्रद्धा में उसकी समाप्ति हुई । जो चित्र प्रारम्भसे ही विड़ जाता है उसे स्याही पातपोतकर सुधारने से वह और भी बिगड़ता है। उसी प्रकार इस सर्वज्ञताके प्रश्नकी दुर्दशा हुई। यदि प्रारम्भ से यह प्रयत्न किया गया होता कि कल्याण मार्म के ज्ञानके लिये इतने लम्बे चौड़े सर्वक की आवश्यकता नहीं है, तो मनुष्य का बहुत कल्याण हुआ होता । परन्तु दूरभूत में मनुष्यः समज इतना अविकसित था कि वह इस विवेकपूर्ण तर्क को सह नहीं सकता था । और जब इस तर्क को सहने की शक्ति आई तब मनुष्य उन पुराने संस्कारों में इतना रंग गया था कि वह नये विचारों को अपनाना नहीं चाहता था। वह विद्वान हो करके भी अपनी विद्वत्ता का उपयोग पुरानी बातों के समर्थन में करता था। ऐसा करने से साधारण जनसमाज भी उसे अपनाता था । इस प्रलोभमको न जीत सकने के कारण, बड़े बड़े
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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