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________________ २९०] पाँचवाँ अध्याय जाय तो भी ठीक नहीं। क्योंकि जिस समय ग्रहण न होगा उस समय उसे अवग्रह ही कैसे कहा जायगा ! खर, रुव-अध्रुवकी परिभाषा कुछ भी हो परन्तु वह निश्चित नहीं है। यहां एक बात यह भी विचारणीय है कि सर्वार्थसिद्धि के अनुसार बहु बहुविध आदि सभी विशेषण [१] 'अर्थ' के बतलाये गये हैं इसीलिये वे ध्रुव का ३.वग्रह, अध्रुव का अवग्रह, कहते हैं । परन्तु यहां जो व्याख्याएँ की जाती हैं वे क्रियाविशेषण [२] बना देती हैं । क्षिप्र और अक्षिप्र को तो सभी क्रियाविशेषण कहते हैं। यह कहां तक उचित है, यह भी विचारणीय है। इस प्रकार अनेक तरह की गड़बड़ी इस विषय में है, जिस से मालूम होता है कि मूल में बवादिका विवेचन था ही नहीं। सूत्र साहित्य में यह कदाचित् मिले भी तो समझना चाहिये कि पीछे से मिलाया गया है । नन्दीसूत्र में मुझे ये विशेषण नहीं मिले । मतिज्ञानके ३३६ भेद करना भी उचित नहीं है । किसी भी वस्तु के भेद ऐमे करना चाहिये जो एक दूसरे से न मिलते हों। एक भेद अगर दूसरे भेद में मिले तो वह वर्गीकरण उचित नहीं (१) यद्यवग्रहादया बवाद ना कर्मणामाक्षेप्तारः बहाद नि पुनर्विशेषणान कस्यत्याह अर्थस्य । १-५६ । (२) पायत्रयीकाकार एव का अर्थ स्थिर करते हैं और अवका चंचल करते हैं । पहिले अर्थ में उनने ज्ञान विशेषण कहा है. परन्तु इस अर्थ में कब अध्रुव अर्थ क विशेषण बनते हैं परन्तु यह मत दूसरे -चायों से नहीं मिलता। भवमवस्थितं इद च ज्ञान विशेषणम् अभवमनवस्थितं यथामिन्नमांजनजलं । अथवा रुषः स्थिरः पर्वतादिः अध्रुवः अस्थिरो वियुदादिः । १-६ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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