SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ ] पाँचवाँ अध्याय हैं जो पहिले संस्कार को नष्ट करते हैं। मतलब यह है कि उपयोग की तीव्रता, संस्कारों का संघर्षण आदि पर किसी संस्कार की स्थायिता निर्भर है । वह ज्ञानावरण के क्षयोपशम से स्थायी अस्थायी नहीं होता । ज्ञानावरण का उसके साथ परम्परा सम्बन्ध हैसाक्षात् नहीं । तीसरी बात यह है कि संस्कार अगर ज्ञानरूप होता तो चारित्र का संस्कार न होना चाहिये । जिस प्रकार ज्ञान की वासना बनी रहती है, उसी प्रकार क्रोधादि कषायों की ( चरित्र के विकारों की ) भी वासना बनी रहती है 1 संस्कार है । है। जबतक रहता है । प्रश्न- कषायका संस्कार भी ज्ञान का ही किसी अनिष्ट घटना से हमें किसी पर कोध होता उस घटना का स्मरण बना रहता है तबतक क्रोध बना क्रोध की वासना ज्ञान की वासना से जुदी नहीं है । उत्तर - किसी बाल-रोगी को डॉक्टर नश्तर लगाता है । रोगी डॉक्टर पर क्रोध करता है, उसे मारने की चेष्टा करता है, गालियाँ भी देता है । परन्तु जब उसे आराम हो जाता है, तो उसका क्रोध चला जाता है बल्कि उसे प्रेम या भक्ति पैदा हो जाती है । यहाँ उसे नश्तर लगाने की घटना के ज्ञानका संस्कार तो है, परन्तु कषाय का संस्कार नहीं है । यदि दोनों ही संस्कार एक होते तो एकके होने पर दूसरा भी होना चाहिये था । मतलब यह है कि संस्कार ज्ञान का भी होता है, चारित्र का भी होता है, गतिका भी होता है और बन्धका भी होता है । इस प्रकार संस्कार 1
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy