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________________ २८० ] पाँचवाँ अध्याय प्रत्येक ज्ञान लब्धि और उपयोग, इस प्रकार दो होता है। किसी भी ज्ञान का भेद उपयोग के भेद से है । उपयोग के भेद से लब्धि के भेद की कल्पना की अगर हम संस्कार को ज्ञान मानेंगे तो उसका लब्धिरूप उपयोग क्या ? इसका निर्णय न होगा । प्रकार का माना जाता जाती है । क्या और प्रश्न- संस्कार की जो न्यूनाधिक शक्ति या उस शक्ति को पैदा करनेवाला क्षयोपशम है, वह लब्धि है, और उससे उत्पन्न संस्कार उपयोग है | उत्तर - अगर संस्कार को उपयोग माना जायगा तो एक ज्ञान का संस्कार जबतक रहेगा तबतक दूसरा ज्ञान पैदा न हो सकेगा क्योंकि पूर्व उपयोग के विनाश के बिना नया उपयोग पैदा नहीं हो सकता, क्योंकि एक साथ में दो उपयोग नहीं होते । इसलिये दो ज्ञानों के संस्कार भी एक साथ न रहेंगे । तब तो किसी प्राणी को कभी भी दो वस्तुओं का स्मरण न होगा | प्रश्न- अगर संस्कार को लब्धिरूप ज्ञान मानें और स्मरण को उपयोगरूप ज्ञान मानें तो क्या हानि है ? उत्तर - यह बात नहीं बन सकती, क्योंकि संस्कार किसी न किसी उपयोग का फल है । परन्तु लब्धि किसी उपयोग से पैदा नहीं होती । वह उपयोग का कारण है न कि कार्य । संस्कार अगर लब्धिरूप होता तो उसके लिये किसी उपयोग की आवश्यकता न होती । संस्कार में उपयोग की अपेक्षा कुछ विशेषता नहीं आसकती, इससे हम उसे नया ज्ञान भी नहीं मान सकते ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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