SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ ] पाँचवाँ अध्याय परन्तु यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि किसी को अन्वय ( विधि ) मुखसे निश्चय हो, किसी को निषेधमुख से निश्चय हो, किसी को उभय-मुख से निश्चय हो इसमें कुछ अन्तर नहीं है। अगर इनको स्वतन्त्र जुदा जुदा ज्ञान माना जायगा तो धारणा के स्थान पर एक नया ज्ञान मानना पड़ेगा । इस प्रकार पाँच ज्ञान हो जायेंगे । अथवा अगर धारणा को न मानोगे तो तीन ही ज्ञान रह जायेंगे।" इससे मालूम होता है कि एक प्राचीन मत ऐसा भी था जो धारणा को अलग भेद नहीं मानना चाहता था । परन्तु धारणा का नाम प्रचलित ज़रूर था इसलिये वह उसे अपाय के अन्तर्गत करना चाहता था। आजकल जिस अर्थ में धारणा का प्रयोग होता है उसका वह निषेधक था। यह प्राचीन मत तथ्यशून्य नहीं है । धारणा को मानना ठीक नहीं मालूम होता, यह बात आगे के वक्तव्य से मालूम हो जायगी। ___ धारणा के स्वरूप में भी बहुत विवाद है । पिछला मत यह है (१) कि अवाय की दृढ़तम अवस्था-जो संस्कार पैदा कर सके. (१) स एव दृढतमावस्थापन्नो धारणा । प्रमाणनयतत्वालोक २-१० । दृढ़तमावस्थापन्नो हि अवायः स्वापदौकितात्मशक्तिविशेषरूपसंस्कारद्वारण कालान्तरे स्मरणं कर्तुं पर्याप्नोति । रत्नाकरास्तारिका । विद्यानन्दी ने भी प्रमाणपरीक्षा में धारणा ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना है। 'तदेतच्चतुष्टयमपि अक्षव्यापारापेक्ष मनोऽपेक्षं च तत एव इन्द्रियप्रत्यक्षं देशताविशदं अक्सिवादक प्रतिपत्तव्यं ।' मतलब यह है कि जैन नैयायिकोंका मत है कि अवाय के नन्तर होनेवाली सानकी एक उपयोगात्मक अवस्था ही धारणा है। संस्कार धारणा नहीं धारणा का फल है। प्रमाचन्द्र ती स्पष्ट ही धारणा को साव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं-'संस्कारः सान्यवहारिकप्रत्यक्षमदो धारणा'-प्रमयकमलमार्तण्डतृतीय परिच्छेद।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy