SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मतभेद और आलोचना [ २७५ है । जो बायोपकरण ( पलक वगैरह ) हैं वे देखते समय हट जाते हैं, इसलिये पदार्थ की किरणे उपकरण पर न पड़ कर निवृत्ति पर सीधी पड़ती हैं इसलिये वहाँ उपकरण [ व्यंजन , के जानने की आवश्यकता नहीं है । इसीसे उसके द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता । यही बात मन के विषय में है। इस विषय में और भी विचार करने की आवश्यकता है । सम्भव है व्यंजनगवग्रह के. ठीक स्वरूप को सिद्ध करने का कोई अन्य मार्ग निकले अथवा व्यंजनोंवग्रह का मानना ही अनावश्यक सिद्ध हो । यहाँ तो मैंने त्रुटियों को दूर करके यथाशक्ति समन्वय की चेष्टा की है। ईहा के विषय में भी जैनाचार्यों में मतभेद रहा है। पुराने लोग ईहा और संशय में कुछ अन्तर नहीं मानते थे परन्तु पीछे के आचार्यों ने सोचा कि 'संशय तो मिथ्याज्ञान है इसलिये उसको सम्यग्ज्ञान के भेदों में न डालना चाहिये' (१) इससे ईहा और संशय में भेद माना जाने लगा । ईहा का स्थान संशय और अवाय के बीच में होगया । ईहा संशयनाशक माना जाने लगा। सर्वार्थसिद्धि में जो ईहा का उदाहरण दिया है वह बिलकुल संशय के समान है। वे कहते हैं कि 'यह सफेद बस्तु बकपंक्ति है या पताका है, इस प्रकार का ज्ञान ईहा है (२)।' इसके बाद वे संशय और ईहा का अन्तर भी नहीं बताते । परन्तु पीछे के आचार्य १ ईहा संसयमेत्तं केई न तयं तओ जमन्नाणं । मइनाणंसो चेहा कहमनाणं तई जुतं । १८२ विशेषा. ......२ अवग्रहगृहीतेऽयं तद्विशेषाकांक्षणमीहा यथा शुक्लं रूपं कि चलाया पताकोति १-१५ । ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy