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________________ २४२ ] पाँचवाँ अध्याय अविनाभाव से संकेत क| अनुमान करता है, तब वह मतिपूर्वक संकेत कहलाता है । प्रश्न - मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थ को दूसरे से कहने के लिये जब हम मन ही मन भाषा रूप में परिणत करते हैं तब वह मति बना रहता है या श्रुत हो जाता है ? उत्तर - मन में भाषारूप परिणत होने से अर्थात् भावाक्षर होने से कोई ज्ञान श्रुत नहीं कहलाता, किन्तु भाषा से पैदा होने से श्रुत कहलाता है । इसलिये भाषापरिणत होने पर भी वह मति ही कहलाया । प्रश्न- ज्ञान को भाषा परिणत करके जब हम बोलते हैं तब कौन ज्ञान कहलाता है ? उत्तर - बोलना कोई ज्ञान नहीं है, न शब्द ज्ञान है । दूसरे प्राणी के लिये यह श्रुत ज्ञान का कारण है, इसलिये हम इसे द्रव्य tea कहते हैं । इसे द्रव्याक्षर अथवा व्यञ्जनाक्षर भी कहते हैं । प्रश्न- द्रव्यश्रुत का क्या अर्थ है और भावश्रुत तथा द्रव्यश्रुत में क्या अन्तर है ? उत्तर - भावस्रुत का कारण जो शब्द, या भाषारूप संकेत लिपि आदि द्रव्यश्रुत हैं । इनसे जो ज्ञान पैदा होता है वह भावRed है । द्रव्यस्त कारण और भावश्रुत कार्य है । प्रश्न- द्रव्यश्रुत, भावश्रुत का कारण है, परन्तु कार्य किस का है ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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