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________________ मनोवैज्ञानिक इतिहास जब सर्वज्ञता की कल्पना योगियों में भी की गई तब यह प्रश्न उठा कि योगी लोग सर्वज्ञ कैसे हो सकते हैं। इसका उत्तर सरल था । प्रायः सभी आस्तिक दर्शन आत्मा के साथ कर्म, प्रकृति माया अदृष्ट आदि मानते हैं । बस, इसके बन्धन छूट जाने पर आत्मा . सर्वज्ञ हो जाता है। परन्तु इसके साथ एक जबर्दस्त प्रश्न उठा कि यदि बन्धन छूट जाने से आत्मा सर्वज्ञ हो जाता है तो ज्ञान आत्माका गुण कहलाया, इसलिये बन्धन छूट जाने पर उसे सदा प्रकाशमान रहना चाहिये । वह एक समय अमुक पदार्थ को जाने, और दूसरे समय दूसरे पदार्थ को जाने, यह कैसे हो सकता है ? बन्धनमुक्त आत्मा का ज्ञान तो सदा एकसा होगा । वह कभी इसे जाने, कभी उसे जाने, इस प्रकार के उपयोग बदलने का कोई कारण तो होना चाहिये ? जो करण होगा वही बन्धन कहलायगा । इसलिये बन्धनपुक्त आत्मा या तो असर्वज्ञ होगा या प्रतिसमय उपयोगात्मक सर्वज्ञ होगा। इस प्रश्नने दार्शनिकों को फिर चिन्तातुर किया । सांख्यदर्शन तो इस प्रश्न से सहज ही में बच गया। उसने कहा कि पदार्थों को जानना यह आत्माका गुण नहीं है । वह तो जड़ प्रकृति का विकार है । बिलकुल बन्धनमुक्त होने र तो आत्मा ज्ञाता ही नहीं रहता । परन्तु जो लोग ज्ञान या बुद्धि को आत्माका गुण मानते थे उनको जरा विशेष चिन्ता हुई । न्याय वैशेषिक यद्यपि मोक्ष में ज्ञानादि गुणों का नाश मानते हैं इसलिये मुक्तात्माओं के विषय में उन्हें कुछ चिन्ता नहीं हुई, न्याय वैशेषिक का मुक्तात्मा सांख्योंके
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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