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________________ २२४ ] पाँचवाँ अध्याय प्रश्न- चक्षु के ऊपर पड़नेवाले प्रभाव में और अन्य इन्द्रियों पर पड़ने वाले प्रभाव में क्या विषमता है जिससे चक्षु अचक्षु अलग अलग दर्शन कहे गये और स्पर्शन रसन आदि में परस्पर क्या समता है जिससे वे सब एकही अचक्षु शब्द से कहे गये ? देखते हैं वह उत्तर - चक्षु इन्द्रिय से हम जिस पदार्थ को पदार्थ के साथ संयुक्त नहीं होता किन्तु उसकी किरणें संयुक्त होती हैं लेकिन अन्य इन्द्रियों के विषय उनसे स्वयं भिड़ते हैं । इस लिये अन्य इन्द्रियाँ प्राप्यकारी मानी जाती हैं और चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी मानी जाती है । अप्राप्यकारी होने से चक्षु इन्द्रिय अन्य इन्द्रियों से विषम है और प्राप्यकारी होने से चारों इन्द्रियाँ समान हैं (१) । प्रश्न - मन से होने वाले दर्शन को चक्षुदर्शन में शामिल करना चाहिये या अचक्षु दर्शन में ? चक्षुमें मन शामिल नहीं हैं इसलिये उसे अचक्षुमें लेना चाहिये । परन्तु अचक्षुमें शामिल करना भी ठीक नहीं क्योंकि स्पर्शनादि इन्द्रियोंके समान मन प्राप्य - कारी नहीं है । उत्तर - मनके द्वारा दर्शन नहीं होता । पारमार्थिक विषयोंका जो मनोदर्शन होता है उसे अवधिदर्शन या केवलदर्शन कहते हैं । प्रश्न - जैनशास्त्रों में मन से भी दर्शन माना है और उसको अचक्षुर्दर्शन में शामिल किया है । व्याख्याप्रज्ञप्ति [ भगवती ] की (१) यच्च प्रकारान्तरेणापि निर्देशस्य सम्भवे चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं चेत्युक्तः तदिन्द्रियाणामप्राप्तकारित्वप्राप्तकारित्वविभागात् । भगवती टीका श. सूत्र ३७ । ,
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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