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________________ सम्यग्ज्ञान [७ यह है कि अपने अपने सिद्धान्तों को पूर्णसत्य साबित करने के लिये लोगोंने र.वज्ञता की कल्पना की है। इस प्रकार सामान्य सर्वज्ञता स्वीकार कर लेने के बाद उसके विषयमें और भी अनेक प्रश्न हुए हैं । सर्वज्ञता अनादि अनन्त है या सादि अनन्त है या सादि सान्त है ? इसी प्रकार एक और प्रश्न था कि सर्वज्ञता प्रतिसमय उपयोग रूप रहती है या लब्धिरूप ? इन सब प्रश्नोंके उत्तर भी जुदे जुदे दर्शनों ने जुदे जुदे रूप में दिये हैं। जो ईश्वरवादी हैं उनकी दृष्टि में तो ईश्वर अनादि से अनन्तकाल तक जगत का विधाता है इसलिये उसकी सर्वज्ञता भी अनादि अनन्त होना चाहिये । परन्तु जो योगी लोग हैं उन्हें इतनी लंबी सर्वज्ञता की क्या जरूरत है ? उनका काम तो सिर्फ इतना है कि जबतक वे जीवित रहें तबतक वे हमें सच्चा उपदेश दें । मृत्यु के बाद उन्हें उपदेश देना नहीं है, इसलिये उस समय वे सर्वज्ञता का क्या करेंगे ? इसलिये उनकी सर्वज्ञता मृत्यु के बाद छीन ली जाती है । मृत्यु के बाद भी अगर वे सर्वज्ञ रहेंगे तो अनन्त कालतक रहेंगे इसलिये एक तरह ईश्वरके प्रतिद्वन्दी हो जायगे । यह बात ईश्वरवादियों को पसन्द नहीं है । असली बात तो यह है कि ईश्वरवादी किसी दूसरे का सर्वज्ञ होना नहीं चाहते, परन्तु अगर सर्वज्ञयोगी न हो तो उनको सच्चाई का प्रमाण कैसे मिले इसके लिये थोड़े समयके लिये उनने सर्वज्ञयोगियों को माना है और काम निकल जाने पर उनकी सर्वज्ञता छीन ली है । इस तरह इन लोगों के मतमें ईश्वर अनादि अनन्त सर्वज्ञ और योगी सादि सान्त सर्वज्ञ हैं। यह मान्यता कणाद (वैशेषिक) गौतम ( न्याय ) और पतञ्जलि ( योगदर्शन ) की है।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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