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________________ श्रीधवलका मत [२०९ खण्डन किया जाता है' परन्तु इसके लिये तो सविकल्पक को प्रमाण सिद्ध करना चाहिये । निर्विकल्पक की प्रमाणता के खण्डन से सविकल्पक तो प्रमाण सिद्ध हुआ नहीं, किन्तु अपना भी खण्डन हो गया । यदि कहा जाय कि अपने निर्विकल्पक की परिभाषा से दूसरों के निर्विकल्पक की परिभाषा जुदी है' तब तो यह और भी बुरा हुआ क्योंकि इससे हमने अपने निर्विकल्पक दर्शन को तो अप्रमाण बना डाला और दूसरे फिर भी बचे रहे क्योंकि उन को यह कहने का मौका मिला कि भले ही तुम्हारा निर्विकल्पक दर्शन अप्रमाण रहे परन्तु हमारा निर्विकल्पक अप्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि वह तुम्हारे निर्विकल्पक से भिन्न है ।' 'दर्शन व्यवहार में उपयोगी नहीं है, इसलिये प्रमाण नहीं कहा-यह बहाना भी ठीक नहीं है; क्योंकि व्यवहार में उपयोगी तो व्यञ्जनावग्रह भी नहीं है, फिर उसे प्रमाण क्यों कहा? यदि कहा जाय कि व्यञ्जनावग्रह अप्रमाण होगा तो अर्थावग्रह भी अप्रमाण हो जायगा तो यह बात दर्शन के लिये भी कही जा सकती है । जब दर्शन ही अप्रमाण है तब उससे पैदा होनेवाला ज्ञान प्रमाण कैसे होगा ? दर्शन को अप्रमाण मानकर तो जैन नैयायिकों ने दूसरों को अपने ऊपर आक्रमण करने का मौका दिया है। उससे हानि के सिवाय लाभ कुछ नहीं हुआ। इससे पाठक समझ गये होंगे कि जैन नैयायिकों ने दर्शन की परिभाषा जानबूझ कर असत्य नहीं की है किन्तु उन्हें वास्तविक परिभाषा मालूम नहीं थी । सच्ची परिभाषा के लिये शताब्दियों तक जैनाचार्यों ने परिश्रम किया परन्तु उन्हें न मिली । अन्त में
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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