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________________ अन्य मतभेद [१९९ दसरा मतभेद-ज्ञान दर्शनसे भिन्न बिलकुल निर्विकल्पक उपयोग अलग होता है । विग्रह गतिमें जबकि ज्ञान दर्शन सम्भव नहीं है उस समय वह उपयोग रहता है । भगवतीमें भी द्रव्य, कषाय, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चरण, वीर्य, इसप्रकार के आत्माष्टकमें उपयोग को ज्ञान दर्शनसे जुदा बतलाया [१] है। सि० गणीका उत्तर-विग्रहगतिमें लब्धि-रूप ज्ञान दर्शन रहता है, और भगवतीमें यह साफ़ लिखा है कि उपयोगात्मा ज्ञानरूप या दर्शनरूप होता है । इस प्रकार स्पष्ट सूत्र होने पर भी हम नहीं समझते कि मोहसे मलिन बुद्धिवालों को ये बातें कहाँसे मझती [२] हैं। तीसरा मतभेद-~-आत्माके मध्यमें आठ प्रदेश ऐसे हैं जो कर्मसे नहीं ढंकते, उनका चैतन्य भी अविकृत रहता है। उसे उपयोगका एक स्वतन्त्रभेद मानना चाहिये । सि० गणीका उत्तर----इसका उत्तर दूसरे मतभेदके उत्तरसे हो जाता है (३)। १- नन, च ज्ञानदर्शनाभ्यामर्थान्तरभृत उपयोगोऽत्येकान्तनिर्विकल्पः । एवं च विग्रहगतिप्राप्ताना ज्ञानदर्शनोपयोगासम्भवेऽपि जीवलक्षणन्यासिरन्यथा घव्यापकं लक्षणं स्यात् । आगम एवोपयोगा:मा ज्ञानदर्शनव्यतिरिक्त उक्तः। भगवत्या द्वादश शते द्रच्यकषाययोगोपयोगशानदर्शनचरणवीर्यामानोऽष्टी भवन्ति । २ ‘जस्स उवयोगाता तस्स नाणाशा का दसणाया वा पियमा अस्थि' एवंसूत्रेऽतिस्पष्टेऽपि विमक्ते न विधःकुत इदन्तेषाम्मोहमलीमसधियामागतम् । ३ एतन कर्मानावृतप्रदेशाष्टकाविकृतचैतन्यसाधारणावस्थोपयोगभेदः प्रत्यस्तोऽवगतव्यःः ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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