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________________ १९६] पाँचवाँ अध्याय १--द्रव्यार्थिक नय तो वस्तुके सामान्य अंश को ग्रहण करने वाला विकल्प है । उसका सम्बन्ध निर्विकल्पक दर्शन के साथ कैसे हो सकता है ! २-यदि दर्शनोपयोग और सम्यग्दर्शन, ज्ञान के अन्तर्गत हैं तो इनके घातके लिये दर्शनावरण और दर्शन-मोह ये जुदे जुदे कर्म क्यों हैं ? ३--उन्मस्थोंके दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है। यदि स्पर्शन आदि इन्द्रियों से दर्शन न माना जायगा तो स्पर्शन, रसन आदि प्रत्यक्ष, दर्शनपूर्वक न होंगे। इस प्रकार छनस्थों के भी दर्शनपूर्वक ज्ञान न होगा। ४--अप्राप्यकारी इन्द्रियों ( चक्षु और मनः.) से होने वाले अर्थावग्रह के पहिले व्यञ्जनावग्रह नहीं माना जाता । इससे मालूम होता है कि वे एकदम व्यक्त ज्ञान करा देती हैं, तब उन्हें दर्शन की क्या ज़रूरत है ? और जहां व्यञ्जनावग्रह की आवश्यकता है वहां दर्शन भी क्यों न मानना चाहिये ? ५-यदि अचक्षुर्दर्शनका अर्थ मनोदर्शन होता तो उसे अचक्षुर्दर्शन इस शब्द से क्यों कहा गया ? मनोदर्शन क्यों न कहा ? अचक्षु शब्द से चक्षु से भिन्न इन्द्रियों का ज्ञान होता है न कि अकेले मन का। दिवाकरजी के सामने इस प्रकार की समस्याएँ खड़ी होने का यह मतलब नहीं है कि उनने जो पुरानी परम्परा में दोष निकाले थे उनका परिहार हो गया । इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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