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________________ . सम्यग्ज्ञान दंड दे ? परन्तु ईश्वर जगत्कर्ता माननेसे इनका और ऐसी अनेक शंकाओं का समाधान हो गया । परन्तु ईश्वर जगत बनावे, रक्षण करे और दंड दे; ये कार्य सर्वज्ञ हुए बिना नहीं हो सकते । इसलिये जगत्कर्तृत्व के लिये सर्वज्ञता की कल्पना हुई। परन्तु कुछ सत्यात्वेषी ऐसे भी थे जो इस प्रकार की कल्पना से संतुष्ट नहीं थे। ईश्वर की मान्यता में जो बाधाएँ थीं और हैं उन्हें दूर करना कठिन था फिरभी शुभाशुभ कर्मफल की व्यवस्था बनसकती थी। उनका कहना था कि प्राणी जो अनेक प्रकार के सुख दुःख भोगते हैं, उनका कोई अदृष्ट कारण अवश्य होना चाहिये, किन्तु वह ईश्वर नहीं हो सकता; क्योंकि प्राणियों को जो दुःखादि दंड मिलता है वह किसी न्यायाधीश की दंडप्रणाली से नहीं मिलता, किन्तु प्राकृतिक दडपणाली से मिलता है। अपथ्यभोजन जैसे धीरे धीरे मनुष्य को बीमार बना देता है उसी प्रकार प्राणियों को पुण्य-पाप-फल भोगना पड़ता है । इस प्रचार पुण्य-पाप फल प्राकृतिक हैं । ऐसे विचारवाले लोगों की परम्परा में ही सांख्य, जैन और बौद्ध दर्शन हुए हैं। इन लोगोंने जब ईश्वर को न माना तब ईश्वरवादियों की तरफ से इन लोगों के ऊपर खूब आक्रपण हुए। उन लोगों का कहना था कि जब तुम ईश्वर को नहीं मानते तब पुण्यपाप का फल मिलता है, यह कैसे जानते हो ? क्या तुमने परलोक देखा है ? क्या तुम्हें प्राणियों के कर्म दिखाई देते हैं ? क्या तुम्हें कर्मकी शक्तियों का पता है ! इन सब प्रश्नों का सीधा उर तो यह था कि हमें विचार करने से इन बातों का पता लगा है। परन्तु वह युग ऐसा था कि उस समय की जनता
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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