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________________ १८२ । चौथा अध्याय [२] इस प्रकरण में म. महावीर की बातचीत से दिव्यध्वनि आदि का वर्णन विरुद्ध जाता है । इच्छारहित वाणी ! जो कि केवलज्ञान के स्वरूप को बनाये रखने के लिये कल्पित की गई है ] आदिका स्पष्ट विरोध है । [३] गोशालक कहता है कि देव असुरोंमें तेरा धर्म - गुरु मेरी निन्दा करता है | इससे मालूम होता है कि देव असुर एक जाति के मनुष्य थे । स्वर्ग के देव यदि म. महावीर के पास आते होते तो गोशालक की हिम्मत ही न पड़ती कि वह म. महाबीर के पास आता या उनसे विरोध करता । यह हो नहीं सकता कि स्वर्ग के देव गोशाल के पास भी जाते हों, क्योंकि देवताओं से गोशालक का असली रूप छिपा नहीं रह सकता था । केवली और तीर्थकर कैसे होते हैं, यह बात विदेह आदि के परिचय से देवताओं को मालूम रहती है । देवता आते होते तो गोशालक यह भी नहीं कह सकता था कि गोशालक मरकर देव होगया है, मैं तो उदायी हूँ, क्योंकि उसके वक्तव्य के विरोध में देवता सारा भंडाफोड़ कर सकते थे 1 इस के अतिरिक्त देवताओं की उपस्थिति में गोशालक मुनियों को भस्म कर दे, म. महावीर पर भी लेश्या छोड़े, और देवता कुछ भी न कर सकें, यह असम्भव है । इसलिये मालूम होता है कि देव शब्द का अर्थ स्वर्ग के देव नहीं किन्तु नरदेव और धर्मदेव हैं । भगवती सूत्र १ में पाँच तरह के देव बतलाये हैं- भव्य द्रव्य देव, नरदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव, भावदेव । जो मनुष्य या तिर्थञ्च देवगति १ कतिविधा ण भंते देवा पण्णत्ता ? गोयमा पंचविधा देवा पण्णत्ता तं जहां : वियदच्च देवा, नर देवा, धम्मदेवा देवाधिदेवा भावदेवा य । भ० १२-९-४६१
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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