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________________ १७४ चौथा अध्याय . सैकड़ो केवली रहा करते हैं १ समवशरणमें केवलियों के बैटने के लिये एक स्थान निर्दिष्ट रहता है जैसा कि अन्य प्राणियों के लिये रहता है । अब प्रश्न यह है कि केवलियों को तीर्थंकर के पास रहने की क्या जरूरत है ? चारित्र की वृद्धि और रक्षण की तो उन्हें आवश्यकता नहीं है जिसके लिये वे तीर्थंकर के साथ रहें । तीर्थकरके पास दूसरा लाभ व्याख्यान सुनने का है सो जब केवली त्रिकालदर्शी है तो उसे व्याख्यान सुनन की भी क्या जरूरत है ? वह तो केवलज्ञान में सदा से उनका व्याख्यान सुन रहा है और बिना व्याख्यान के ही वे बातें जान रहा है । हाँ, अगर केवली अपराविद्या में कुछ कम हो तो तीर्थंकर के व्याख्यान सुनने से उसे लौकिक लाभ हो सकता है, और उसके लिये वह तीर्थंकर के पास रह सकता है। प्रश्न-अपराविद्या में केवली कम हों तो भी उन्हें व्याख्यान सुनने की क्या ज़रूरत है, क्योंकि उनने पराविद्या प्राप्त करली है ? उत्तर-आत्मोद्धार के लिये उन्हें कुछ ज़रूरत नहीं है, किन्तु प्रत्येक मनुष्य को जीवित रहने तक समाजसेवा करना चाहिये, जिसके लिये अपराविद्या की ज़रूरत है। प्रश्न-केवली तो कृत्यकृत्य होता है । उसे अब कुछ करने की जरूरत क्या है ? उत्तर-कृतकृत्य तो तीर्थकर भी होते हैं किन्तु यदि वे जीवन (१)-इअखवगसेणिपत्ता समणा चउरो वि केवली जाया। ते गंतृण जिणन्त केवालपरिसाइ आसीणा । १८३ कुम्मापुत्तचरियं । ( चारों मुनि केवली होकर तीर्थकरके पास गये और केवलिपरिषदमें बैठे । )
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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