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________________ वास्तविक अर्थका समर्थन । १६५ थोड़े शब्दों से भी इतकेवली का पूरा मतलब समझ जाते हैं । इसीलिये दोनों का ज्ञान का बराबर है । हाँ, उनमें अनुभव की तरतमता अवश्य रह जाती है । प्रश्न- यह अनुभव की तरतमता एक पहेली है । आप इरुतकेवली का ज्ञान कवली के बराबर मानते हैं । श्रुतकेवली केवली का पूरा आशय समझ जाते हैं, वे थोड़े शब्दों का बहुत विस्तार भी कर सकते हैं यह भी मानते हैं; तब समझ में नहीं आता कि श्रुतकेवली के अनुभव में अब क्या कभी रह जाती है ? क्या कवली बनने के लिये सब पुण्य पाप आदि का भोग करना पड़ता है ? आखिर क्या बात है जिसे आप अनुभव कहते हैं। उत्तर- आशयको समझना एक बात है; किन्तु वह आशय किस आधार पर खड़ा हुआ है आदि उसमें गहग प्रवेश करना दूसरी बात है। केवली में जो आत्मसाक्षात्कार या ब्रह्मसाक्षात्कार होता है वही उस अनुभव का बीज है जो इस्तकेवली में नहीं होता, तत्त्व का ठीक ठीक निर्णय अपने ही द्वारा करने के लिये जिस परम वीतरागता को आवश्यकता होती है वह भी श्रुतकेवली को प्राप्त नहीं होती इसलिये भी वह पूर्ण सत्य को प्राप्त कर नहीं पाता । ये ही सब विशेषताएँ केवली की हैं जो अनुभवरूप या अनुभव का कारण कहीं जाती हैं। अनुभव को शब्दों से कहना असम्भव है इसलिये वह यहाँ भी शब्दोंसे नहीं कहा जा सकता फिर भी विषय को यथाशक्ति स्पष्ट करने के लिये गुणस्थान-चर्चा के आधार पर कुछ विचार किया जाता है ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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