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________________ वास्तविक अर्थका समर्थन [१६३ धार्मिक सत्यको प्राप्त करने की कुंजी है, जिसे कि श्रुतकवली पा नहीं सका है । इरुतकेवली सत्यका सिर्फ रक्षक है, जब कि केपली मर्जक (बनानघाला ) भी है। प्रश्न-शास्त्र में लिखा है कि केवली जितना जानते हैं उससे अनंतवा भाग कहते हैं और जितना कहते हैं उससे अनंतवाँभाग रुतबद्ध १ होता है । तब ररुतज्ञान ओर केवलज्ञान का विषय एक बराबर कैसे हो सकता है ? उत्तर--शास्त्रों में केवलज्ञान और श्रुतज्ञान को बराबर बताया है । फिर, दूसरी जगह अनन्तवाँ भाग रहा । इस पारस्परिक विरोध स मालूम होता है कि रुतेक अनंतवें भाग की कल्पना तब की गई थी जब कवलज्ञान की विकृत परिभाषा का प्रचार हो गया था। दुसरा ओर दोनों का समन्वय करने वाला उत्तर यह है कि अनंतवें भाग का कथन अनुभव की गंभीरता की अपेक्षा से हे न कि विषय की अधिकता की अपेक्षा से । एक आदमी मिश्री का स्वाद लेकर दूसरे को उसका परिचय शब्दों में देना चाहे तो घंटों व्याख्यान देकर भी अनुभव के आनन्द को शब्दों में नहीं उतार सकता। इसलिये ज्ञेय पदार्थों की अपेक्षा अभिलाप्य (बोलने योग्य ) पदार्थ अनन्तभाग कहे गये हैं । एक मनुष्य जीवनभर में जितने व्याख्यान दे सकता है उतने का इरुतबद्ध होना भी अशक्य है, खासकर उस युगमें जब शास्त्र लिखे नहीं जाते थे और शीघलिपि का जिन दिनों नाम भी न सुना गया था । इसलिये अमिलान्य से इरुतीनबद्ध अंश अनन्तवा भाग बताया गया है । यहाँ अनन्तवाँ भाग का अर्थ १ पण्णवाणिज्जाभावा अणंतभागो दु अपाभेलप्पाणं । पाणवणिआणं पुण अर्थततमागो सुदषिवतो ।। गो. जी. ३३४ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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