SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौथा अध्याय पहिले मति और श्रुतज्ञान कुमति और कुश्रुत कहलाते हैं । जहां सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन का मिश्रण रहता है वहां सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान का भी मिश्रण * माना जाता है। सम्यग्दर्शन से हमें वह दृष्टि प्राप्त होती है जिससे बाह्यदृष्टि से जो मिथ्याज्ञान है यह भी कल्याण का साधक होजाता है। एक आदमी सम्यग्दृष्टि है किन्तु आँखों की कमजोरी से, प्रकाश की कमी से या दूर होने से रस्सी को सर्प समझ लेता है तो व्यवहार में उसका ज्ञान असत्य होने पर भी धर्मशास्त्र की दृष्टि में वह सम्यग्ज्ञानी ही है, क्योंकि इस असत्यता से उसके कल्याण मार्ग में कुछ बाधा नहीं आती। - यह तो एक साधारण उदाहरण है, परन्तु इतिहास, पुराण, भूवृत्त, स्वर्ग नरक, ज्योतिष, वैद्यक, भौतिक विज्ञान आदि अनेक विषयों पर यही बात कही जा सकती है। इन विषयों का सम्यग्दृष्टि को अगर सच्चाज्ञान है तो भी वह सम्यग्ज्ञानी है और मिथ्याज्ञान है तो भी वह सम्यग्ज्ञानी है। तात्पर्य यह है कि जिससे आत्मा सुखी हो अर्थात् जो सुख के सच्चे मार्ग को बतलाने वाला है वही सम्यग्ज्ञान है । जिसने सुख के मार्ग को अच्छी तरह जान लिया है अर्थात् पूर्णरूप में अनुभव कर लिया है वही केवली या सर्वज्ञ कहलाता है । आत्मज्ञानकी परम ____ * ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानश्रुताज्ञान विभज्ञानेषु मिध्यादृष्टिः सासादनसम्यम्दृष्टिश्चास्ति आभिनिबोधिकश्रुनावधिज्ञानेषु असंयतसम्यग्दृष्टयादीन । सर्वार्थसिद्धि १-८ । मिस्सुदये सम्मिस्सं अण्णाणतियेण णाणतियमेव । गो जी. ३०२।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy