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________________ सर्वज्ञ शब्दका अर्थ [ १४९ मालूम होती है । उनको जगह जगह मुनि, मुनीन्द्र, सूरि [ आचार्य ] शब्द से कहा गया है कहीं केवली नहीं कहा । यहाँ तक कि जब उनके मुँह से सर्वज्ञसिद्धि कराई गई तत्र युक्त और आगम की दुहाई दी गई। ऐसी कोई बात नहीं कहलाई गई जिससे पता लगे कि श्रीधर मुनि स्वयं सर्वज्ञ हैं । सर्वज्ञ के सामने ही राजा को यह सन्देह हो कि सर्वज्ञ होता है कि नहीं ? यह ज़रा आश्चर्य की बात है । ख़ैर यह बात साफ़ मालूम होती है कि श्रीधर केवली या सर्वज्ञ नहीं थे अधिक से अधिक अवधिज्ञानी थे । श्रीषेण राजा जब वनक्रीड़ा कर रहा था तब उसने तपः श्री से शोषित अवधिज्ञानी अनन्त नामक चारण मुनि को उतरते देखा (१) और मुनि से पूछा:--- 'आप भूतभविष्य की सत्र बात जानते हो। आपके ज्ञानके बाहर जगत् में कोई चीज़ नहीं है; फिर बताइये कि संसार की सत्र दशा का ज्ञान होने पर भी मुझे वैराग्य क्यों नहीं होता ( २ ) ? ' यहाँ यह बात खास ध्यान में रखना चाहिये कि राजा यह नहीं कहता कि आप भूत भविष्य जानते हैं, क्योंकि थोड़ा बहुत भूत भविष्य तो साधारण आदमी भी जानता है । वह तो कहता है कि भूत भविष्य आपके ज्ञान के बाहर नहीं है यह बात तो सर्वज्ञता की प्रचलित मान्यता में ही सम्भव है जिसका प्रयोग राजाने १ अत्रान्तरे पृथु तपःश्रिय उन्नत श्रीरुन्मीलितावधिदृशं सुविशुद्ध दृष्टिः । तारापथादवतरन्तमनन्तसंज्ञमैक्षिष्टचारणमुनिं सहसा नरेन्द्रः । ३-४४ २ यद्वाविभूतमधवामुनिनाथ तत्तवाचं न वस्तु कथयेदमतः प्रसीद | संसारवृत्तमखिलं परिजानतोऽपि, नाद्यापि याति विरतिं किमु मानसं मे || ३-५० ॥
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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