SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवली के अन्य ज्ञान [ १३७ है, बस्त्र उपभोग है । केवली के जब भोग और उपभोग माना जाता है तब यह निश्चित है कि उनके इन्द्रियाँ भी होती हैं, और वे विषय -ग्रहण करतीं हैं । इन्द्रियों के सद्भाव से मतिज्ञान सिद्ध हुआ । इस तरह केवली के जब मतिज्ञान आदि भी सिद्ध होंगे तब यह कहना अनुचित है कि उनके सदा केवलज्ञान या केवलदर्शन का उपयोग होता है । क्योंकि मतिज्ञान के उपयोग के समय केवलज्ञान का उपयोग नहीं हो सकता और केवली के मतिज्ञान सिद्ध होता है । प्रश्न- केवली को भोग और उपभोग के साधन मिलते हैं किन्तु उनका भोग या उपभोग केवली नहीं करते क्योंकि भोग और उपभोग मानने से केवली में एक तरह की आकुलता - व्याकुलता मानना पड़ेगी जोकि ठीक नहीं । उत्तर-- भोग और उपभोग के होने पर भी आकुलता - व्याकुलता का मानना आवश्यक नहीं है । कोई महात्मा सुगंध मिलने पर उसका उपयोग कर लेता है. न मिलने पर उसके लिये व्याकुल नहीं होता । यहाँ पर सुगंध का भोग रहने पर भी अकुलता - व्याकुलता बिलकुल नहीं है । केवली के भी इसी तरह भोग होते हैं यहाँ आकुलता - व्याकुलता का प्रश्न ही नहीं है । बात इतनी ही है कि किसी ने सुगंधित फूल बरसाये और उनकी सुगंध चारों तरफ फैली तो कवली की नाक में गई कि नहीं ? अगर गई तो उसका उनको अनुभव क्यों नहीं होगा ! यदि न होगा तो केवली के भोग उपभोग बतलाने का क्या मतलब था ? जिस प्रकार भोगान्तराय आदि का नाश होने पर सिद्धों में भोग उपभोग का नाश बतलाया गया उसी प्रकार अर्हन्त के भी बताना चाहिये था, परन्तु ऐसा नहीं किया
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy