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________________ सर्वज्ञत्व और जैनशास्त्र [१०१ महत्ता में है । अवधिज्ञानी आदि का उपयोग भी केवली के समान हो सकता है परन्तु ऐसे बहुत से विषय हैं जहां केवली उपयोग लगासकता है किन्तु अवधिज्ञानी नहीं लगा सकता । अथवा केवली का उपयोग जितना गहरा जाता है उतना अवधिज्ञानी आदि छमस्थोंका नहीं जाता । अथवा जिस तत्त्व तक केवली की पहुंच है वहां तक अन्यों [छनस्थों की नहीं है । प्रश्न-आत्मा स्वभाव से ज्ञाता दृष्टा है । आत्मा जितने पदार्थों को जान सकता है सबके आकार आत्मा में अकृत्रिम रूपमें स्थित हैं । जब तक आत्मा मलिन है तब तक वे आकार प्रगट नहीं होते। जब आत्मा निर्मल हो जाता है तब वे सब आकार एक साथ प्रगट हो जाते हैं । इस प्रकार एकसाथ अनन्त पदार्थों का प्रतिबिम्ब प्रकट होता है । यही अनन्तज्ञान है । उत्तर-आत्मा दर्पण की तरह नहीं है कि उसके एक एक भाग में एक एक आकार बना हो । दर्पण में एक साथ पचास चीजों का प्रतिबिम्ब पड़े तो वह दर्पण के जुदे जुदे भागों में पड़ेगा। जिस भागपर एक वस्तुका प्रतिबिम्ब है उसी भागपर दूसरी वस्तु का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता । परन्तु आत्मा में जो ज्ञान पैदा होता है वह आत्मा के एक भाग में नहीं होता-प्रत्येक ज्ञान आत्मव्यापक होता है । इसलिये अनेकाकार रूप अनेक ज्ञान आत्मामें एक साथ कभी नहीं हो सकते। यह आकार की बात इसलिये भी ठीक नहीं है कि आत्मा अमर्तिक है इसलिये उसमें किसी का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता । इसके अतिरिक्त आत्मा के एक प्रदेश में अगर एक
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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