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________________ carnanananninin जैनधर्म-मीमांसा n nnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn होगा या न होगा । परन्तु कोई चौदहके पंद्रह गुणस्थान बनावे तो एतराज अधिक होगा। इससे सामायिक और छेदोपस्थापनाकी अपेक्षा चार यम और पाँच यमका भेद मानना ही अधिक संगत है। क्रम-विकासकी दृष्टि से भी यही उचित है। ___ एक प्रश्न यह उठाया जाता है । " केशी-गौतम-संवाद श्वेताम्बरग्रंथोंमें पाया जाता है परन्तु श्वेताम्बर-ग्रंथ तो विकृत हैं, वे देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणके समयके बने हुए हैं, इसलिये उनकी किसी बातपर विश्वास कैसे किया जा सकता है ? ” । ___ इसके उत्तरमें यह बात ध्यानमें रखना चाहिये कि श्वेताम्बर-शास्त्र देवर्द्धिगणिके समयमें बने नहीं है किन्तु लिपिबद्ध हुए हैं—उनकी वाचना हुई है । लिखा जाना और रचा जाना इसमें बहुत अन्तर है। दूसरी बात यह है दिगम्बर-साहित्य तो मौलिकताकी दृष्टिसे श्वेताम्बर-सूत्रोंसे भी कम प्रमाण है । क्योंकि ये तो दिगम्बराचार्योकी स्वतंत्र रचनाएँ हैं और सो भी श्वेताम्बर साहित्यसे प्राचीन नहीं। खैर, इस विषयपर विशेष विवेचन करनेकी यहाँ जरूरत नहीं है। मेरी दृष्टिमें तो दोनों ही सम्प्रदायोंका साहित्य विकृत है । परन्तु इतिहासकी सामग्री तो हमें उसीसे मिलती है, इसलिये उसी सामग्रीको जाँचकर हमें ऐतिहासिक निर्णय करना है। केशी-गौतम-संवाद पार्श्वनाथके अस्तित्वका प्रबल प्रमाण है और पार्श्व-धर्म ओर वीर-धर्मके भेदपर भी कुछ प्रकाश डालता है । इससे अधिक प्रकाश डालनेवाली अभी कोई दूसरी सामग्री उपलब्ध नहीं है । यहाँ हलकी पतली बातोंपर अधिक ध्यान नहीं देना है किन्तु १–चत्वारो यमा एव यामा निवृत्तयो । स्थानांगीका २६६। ।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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