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________________ जैनधर्म-मीमांसा भेदों को तोड़ देने की जरूरत है। हाँ, जीवनमें मित्र-वर्ग या सम्बन्धीवर्ग बनाने की जरूरत होती है, सो जहाँ चाहेसे बनाना चाहिये । अमुक वर्गमेंसे ही चुनाव कर सकें, यह भेद न होना चाहिये । इस प्रकार जब हममें सर्व-जाति-समभाव आ जायगा, तो हममें से वर्ग-युद्धके तथा ईर्ष्या और दुरभिमानके बहुतसे कारण नष्ट हो जायँगे, तथा हमें प्रगतिके लिये तथा सुविधापूर्वक जीवन बिताने के लिये बहुत से साधन मिल जायँगे । इसलिये हमें अपने दिलमेंसे जाति-उपजातिका मोह निकाल देना चाहिये, जातीय और साम्प्रदायिक विशेषाधिकारों की माँग छोड़ देना चाहिये, जातिके नामपर रोटी-बेटी व्यवहारका विरोध न करना चाहिये । इस प्रकार सर्व-धर्म-समभावीके समान सर्व-जाति - समभावी भी बनना चाहिये । ૪૮ ६ – सर्व-जाति - समभावकी तरह नर-नारी - समभाव भी अत्यावश्यक है । यह सर्व जाति - समभावका एक अंग है । नर-नारीकी शारीरिक विषमता है, परन्तु वह विषमता ऐसी है जैसी कि एक शरीर के दो अंगोंमें होती है । नर-नारी एक दूसरेके लिये पूरक हैं । इस। लिये एक दूसरेकी उन्नतिमें एक दूसरेको बाधक नहीं होना चाहिये और जहाँ तक बन सके अधिकारोंमें समानता होना चाहिये । अनेक स्थानों पर स्त्रीकी अवस्था गुलाम सरीखी है । उसके आर्थिक अधिकार पूरी तरह छिने हुए हैं । फूटी कौड़ीपर भी उसका स्वामित्व नहीं है । यह दुःपरिस्थिति जाना चाहिये । जहाँ तक बन सके, स्त्रीपुरुषों में आर्थिक समताका प्रचार होना चाहिये । अगर विषमता रहे भी, तो वह कमसे कम हो । सामाजिक अधिकारोंमें भी विषमता न होना चाहिये । स्त्री सिर्फ इसीलिये किसी कार्यसे वश्चित न हो सके
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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