SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म-मीमांसा हमें यह निश्चित समझ लेना चाहिये कि हमारा किसीके ऊपर कुछ अधिकार नहीं है । जो जितनी सहायता करे वह उसकी सज्ज - नता है; अगर न करे तो हमें बुरा माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है । ३६ संसारका दुःख और सुख कुछ स्थिर नहीं है । वर्तमान विपत्ति आखिर नष्ट होगी ही । अगर यह इस जीवन-भर स्थिर भी रहे, तो भी अनन्त कालके सामने यह जीवन इतना छोटा है कि इसकी तुलना समुद्रके सामने एक कणसे भी नहीं की जा सकती । नाटकके पात्रोंकी महत्ता उनके पदपर स्थिर नहीं है, अर्थात् राजा बनने वाला उत्तम पात्र हो और रङ्क बननेवाला जघन्य पात्र हो यह बात नहीं है किन्तु, जिसको जो काम सौंपा गया है, वह काम जो अच्छी तरहसे कलाके साथ कर सकता है वही अच्छा पात्र है । इसी प्रकार संसार में अपने कर्त्तव्यको पूर्णरूप से करनेवाला ही उत्तम है । धन, प्रभाव, यश आदिसे किसी की उत्तमताका अनुमान लगाना ठीक नहीं है । जिस प्रकार काँटोंसे बचने के लिये समस्त पृथ्वीतलपर चमड़ा नहीं बिछाया जा सकता, किन्तु पैरोंके चारों तरफ चमड़ा लपेटा जाता है, अर्थात् जूते पहने जाते हैं, उसी प्रकार दुःखसे बचने के लिये हम संसारकी अनिष्ट वस्तुओंका नाश नहीं कर सकते, न उन्हें वश कर सकते हैं; किन्तु समताकी भावनासे अपनेको तदनुकूल कर सकते हैं । इसलिये अगर हम दुखी न होनेका दृढ़ निश्चय कर लें, तो हमें कोई दुःखी नहीं कर सकता । ये सब तथा इसी तरह की अन्यान्य
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy