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________________ पर-सुखमें निज-सुख anwarwww.wwwwwwwww. rwwwwwwwwwwwwwwwwor इस तरह इन्हें ८०० डिग्री सुखरूपी मुनाफा हुआ जब कि पहिलेको ११०० डिग्री दुःखरूपी नुकसान है । कहनेका तात्पर्य यह है कि परोपकार करनेमें हमें जितना कष्ट उठाना पड़ता है, उससे असंख्यगुणा कष्ट उसका कम हो जाता है जिसके साथ परोपकार किया जाता है। बच्चेको माँ-बाप पालते हैं इससे माँ-बापको कष्ट होता है जरूर, परन्तु बच्चेका कष्ट जितना कम होता है उससे दसवाँ हिस्सा भी माँ-बापका कष्ट नहीं बढ़ता । ये उदाहरण छोटे क्षेत्रमें हैं परन्तु विश्वभरके लिये इस नीतिमे काम लेनेमें संसारका सुख कई गुणा बढ़ जाता है । अपने अपने स्वार्थकी दृष्टि रखनेसे संसारमें जितनी सुख-सृष्टि हो सकती है, परोपकाररूप सहयोगसे वह सुखसृष्टि वर्गधाराके समान बढ़ती जाती है । एक मनुष्य अगर एक डिग्री सुख पैदा कर सकता है, तो दो मनुष्य २४२=४ डिग्री सुख पैदा कर सकते हैं । इसी प्रकार तीन मनुष्य ३४३९, चार मनुष्य ४४४=१६, पाँच मनुष्य ५४५-२५ डिग्री सुख पैदा कर सकते हैं । इसी नियमपर 'एकसे आधे दो से चार' की लोकोक्ति प्रचलित है। अगर स्वार्थियोंका समाज और परोपकारियोंका समाज, ऐसे दो समाज कल्पित किये जायें, तो दोनों समाजके व्याक्ति सुखके लिये समान प्रयत्न करनेपर भी पहिलेकी अपेक्षा दूसरे समाजके मनुष्य असंख्यगुणे सुखी होंगे। कहनेका तात्पर्य यह है कि यद्यपि मनुष्य अपने ही सुखके लिये प्रयत्न करता है; परन्तु परोपकारी हुए बिना संसारमें इतना सुख ही तैयार नहीं हो सकता जिससे उसे सुखका बहुत और अधिक स्थायी भाग मिले । इसलिये परोपकारको भी स्वार्थउच्चतम स्वार्थ-सात्विक स्वार्थ समझना चाहिये । परोपकारका क्षेत्र
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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