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________________ अनुरोध • कोई भी सम्प्रदाय जब स्थापित होता है तब वह समाजकी किसी न किसी भलाई के लिए होता है। मानव-जीवनकी समस्याएँ सब समय और सब जगह एक-सी नहीं होती इसलिये उनकी चिकित्सारूप धर्म भी एकसे नहीं होते । अपने अपंजे देश-कालके लिये सब ठीक हैं। सभी सत्यके एक एक अंश या रूप हैं। उनमें विरोध समझना भूल है । अगर हम इस प्रकारकी उदारता और सचाईके साया प्रत्येक धर्मकी मीमांसा करें तो हम भगवान् सत्यकी सेवाके साथ भगवती अहिंसाकी भी सेवा कर सकेंगे; साम्प्रदायिक कलह तथा द्वेष-वासनाको नष्ट करके शान्तिलाम कर सकेंगे। धर्मकी आलोचना हम जिस कठोरताके साथ करते हैं और उस समय युक्तिी तथा निःपक्षपातकी जितनी दुहाई देते हैं उतनी अगर अपने धर्मकी आलोचनाके समय की जाय तो भी साम्प्रदायिकताके मदका भूत उतर जाय । इस प्रकार सम्प्रदायिक निःपक्षता आनेपर आप जीवनके लिये उपयोगी तत्त्व सभी मोसे ग्रहण कर सकते हैं । साधारण रूपसे तो उपयोगी तत्त्व सभीको अपने अपने धर्ममें मिल सकते हैं परन्तु परिस्थितिके अनुसार विशेष विवेचन अगर अन्यत्र मिल रहा हो तो वहाँसे लेनेमें हिचकनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। जो तस्व अपने लिये हितकारी है वह कहींसे मिले, उसे ग्रहण करने में लजित शेने या अपनेको अपमानित समझनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। इस अवस्थामें पहुँचनेपर आप देखेंगे कि सर्व-धर्म-समभाव, स सिमभाव, समाजसुधारकता, विवेक आदि गुण आपमें आगये हैं । मन इन गुणोंकी सदा आवश्यकता है । इनको व्यवहार्य-रूप देने में कंठिनाइयाँ हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी होनेसे समाजके विरु "सिद्धान्तोंको अमलमें लानेसे हिचकता है; इसी लिये सत्य-सर गई है। आप हिन्दू, मुसलमान, जैन, बौद्ध, ईसाई, पण आदि किसी भी सम्प्रदायमें रहिये, परन्तु अपने प्रब बनाइये, समाजसुधारके बड़ेसे बड़े काम लिये
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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