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________________ २० जैनधर्म-मीमांसा बनना सिखाया जाता है । सहनशीलता और परस्पर प्रेम या सहयोगसे हम दुःखोंसे बहुत कुछ सुरक्षित रह सकते हैं। कुछ तो दुःखके निमित्त कारण दूर हो जाते हैं और जो कुछ रहते हैं, वे हमारे ऊपर प्रभाव नहीं डाल पाते-अर्थात् हमें दुःखी नहीं बना पाते । प्राकृतिक दुःखोंको दूर करनेका इससे बढ़कर कोई उपाय नहीं है । परप्राणिकृत दुःखोंको कम करनेके लिये भी धर्मकी आवश्यकता है। जितनी सामग्री है और जितने भोगनेवाले हैं, उनकी योग्य व्यवस्था करनेसे परप्राणिकृत दुख कम किये जा सकते हैं । " जिसकी लाठी उसकी भैंस” के सिद्धान्तके अनुसार बलवान् अगर निर्बलोंको पीड़ा देते रहें, तो कोई भी मनुष्य सुखी न हो सकेगा। छीना-झपटीसे भोग-सामग्रीमें वृद्धि तो हो नहीं सकती, बल्कि कुछ हानि ही होगी, और कोई भी प्राणी निराकुलतासे उसका भोग न कर सकेगा। अगर कोई किसीको न सतावे, न धोखा दे, न उसकी चोरी करे, तो सभी लोग न्याय-प्राप्त सामग्रीका निराकुलतासे भोग कर सकेंगे। इसलिये सबको संयमसे काम लेनेकी आवश्यकता है। ___ संयमके दो भेद किये जाते हैं-इन्द्रिय-संयम और प्राणि-संयम । इन्द्रियोंको वशमें करनेको इन्द्रिय-संयम कहते हैं । इन्द्रिय-संयमी मनुष्य अपने जीवन-निर्वाहके लिये कमसे कम सामग्रीका उपभोग करता है, वह बची हुई सामग्री दूसरोंके काम आती है, इससे संघर्ष कम होता है और सुख बढ़ता है। अगर एक मनुष्य अधिक सामग्रीका उपभोग करेगा तो दूसरेको कमी पड़ेगी, इससे दूसरा मनुष्य दुखी होगा और संघर्षसे दोनों दुखी होंगे। एक अच्छे राज्यमें जो कार्य कानूनके बलपर कराया जाता है, धर्म वही कार्य आत्म-शुद्धिके मार्गसे कराना चाहता है।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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