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________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग ३२५ (संवर) और 'संचित कारणोंको दूर करने' (=निर्जरा) पर विश्वास करना भी आवश्यक है। परन्तु 'संवर' तब तक नहीं किया जा सकता, -दुःखके कारणोंको तब तक दूर नहीं किया जा सकता,-जब तक यह न मालूम हो कि दुःखकारण आते कैसे हैं-'आस्रव कैसे होता है। इसी प्रकार 'निर्जरा' तब तक नहीं की जा सकती जब तक यह न मालूम हो कि हम किसी परदुःखके जालमें बँधे कैसे हैं-अर्थात् 'बंध' क्या है। प्रारम्भके 'जीव' और 'अजीव' अर्थात् 'स्व' और 'पर' तत्त्व तो आवश्यक हैं ही, क्योंकि जब तक 'अपने'को न जाने और 'अपने' साथ कौनसा विकार लगा हुआ है यह बात न जाने तब तक अन्य पाँच तत्त्वोंका जानना भी नहीं हो सकता । इस प्रकार सामान्य सात तत्त्वोंपर वह विश्वास करता है। परन्तु इनका जो दार्शनिक और सूक्ष्म विवेचन है उसपर विश्वास करना अनिवार्य नहीं है क्योंकि उसपर विश्वास किये विना भी कल्याणमार्गपर विश्वास किया जा सकता है । उदाहरणार्थ अजीवके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच भेद किये गये हैं । इनके बदलेमें अगर कोई चार (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश ), तीन ( पुद्गल, धर्म, अधर्म), दो ( पुद्गल, धर्म ) या एक (पुद्गल ) ही माने तो क्या हानि है ? इसी प्रकार आस्रव, बन्ध आदिके निरूपणमें कोई कर्मोके आठ भेद करे और कोई इससे कम-ज्यादह; अथवा कोई गोत्रको न माने तो इसमें क्या हानि है ? दार्शनिक विवेचन बुरा नहीं है परन्तु वह सम्यक्त्वकी अनिवार्य शर्त नहीं है । इसीलिये यहाँपर सम्यक्त्वके स्वरूपमें सात तत्त्व आदिका नाम नहीं लिया गया है । मैं पहिले कह चुका हूँ कि सम्यग्दर्शन अनिर्वचनीय है। परन्तु उसके प्राप्त होनेपर उसका ज्ञान और चरित्र कैसा हो जाता है उसी
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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