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________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग उत्तेजना देते हैं और धार्मिकोंका उत्साह बढ़ाते हैं, उन्हें धर्ममार्गमें स्थिर रखते हैं तथा उनके विशेष संसर्गसे स्वयं बहुत-सा लाभ उठाते हैं। · धार्मिकोंसे प्रेम करनेका यह मतलब नहीं है कि दूसरोंसे द्वेष किया जाय । अगर हम रुपयेसे प्रेम करते हैं तो इसका यह अर्थ नहीं है कि पैसेसे द्वेष करते हैं । प्रेम सबसे है, परन्तु वह योग्यताके अनुसार है । और वह योग्यता भी, धन, विद्या, शारीरिक बल आदिकी नहीं किन्तु, कल्याणमार्गकी पथिकताकी है। यह वात्सल्य कल्याणवर्द्धक होनेसे गुण है, उपादेय है ।' . प्रभावना अंग-कल्याणमार्गका जगत्में प्रचार करना, उसका महत्व बढ़ाना, प्रभावना अंग है। यद्यपि धर्मस सबका कल्याण है, फिर भी मनुष्य स्वार्थमें इतना तल्लीन रहता है कि वह दूरदर्शिताको छोड़कर धर्मको भूल जाता है । धन-सम्पत्तिके महत्त्वमें ही वह अपना महत्त्व समझता है तथा इसी चिह्नसे वह दूसरेका महत्त्व भी मापता है। परंतु मनुष्यकी इस स्वार्थपूर्ण दृष्टिको तुच्छता बतलाना और उदार दृष्टिकी महत्ता बतलाना प्रभावना-अंगका लक्ष्य है। प्रभावनाके सैकड़ों तरीके हैं। अपने अपने समयके लिये सब अनुकूल हैं और परिस्थितिके बदल जानेपर वे प्रतिकूल हो जाते हैं। इसलिये प्रभावनाके किसी रूपपर नहीं किंतु उसके लक्ष्यपर दृष्टि रख कर प्रभावनाका पालन करना चाहिये। लोगोंके हृदयमें धर्मके विषयमें आदर हो, उसके पालन करनेकी इच्छा पैदा हो, वे उससे अपना कल्याण समझें; इसके लिये जो सफल प्रयत्न किया जायगा वह प्रभाचना- कहलायगा.
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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