SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०४ जैनधर्म-मीमांसा वह उसे स्वीकार कर लेगा । धर्मनिन्दाके भयसे वह साक्षात् अधर्म (मिथ्या बोलना ) न करेगा। परन्तु उसकी प्रतिक्रियाके लिये स्वय ऐसा सद्व्यवहार करेगा कि दूसरेके हृदयमें सन्मार्गके विषयमें जो निन्दाका भाव हो गया था वह छुप जाय । धर्मात्मापनकी ओटमें एक मनुष्यने जो अधर्माचरण किया है उसकी प्रतिक्रिया सम्यग्दृष्टि आत्मोन्नति करके, परोपकार करके, करता है । इस प्रकार अपने गुणोंकी वृद्धिके कारण इस अङ्गका नाम उपबृंहण* है। कोई भारतीय मनुष्य विदेशोंमें जाकर कोई ऐसा बुरा काम करे, जिससे विदेशी लोगोंके मनमें भारतसे घृणा पैदा होती हो, तो दूसरा भारतीय यदि इसके प्रतीकारके लिये ऐसा अच्छा सद्व्यवहार करे कि जिससे विदेशियोंके हृदयमें भारतपर श्रद्धा उत्पन्न हो तो यह राष्ट्रीय ___ * 'बृहि' वृद्धौ धातुसे 'उप' उपसर्गपूर्वक 'उपबृंहण' शब्द बनता है, जिसका अर्थ वृद्धि या तरक्की हो जाता है । धर्मनिन्दाकी प्रतिक्रियाके लिये सम्यग्दृष्टि धर्मकी विशेष वृद्धि करता है इसलिये इसको 'उपबंहण' कहते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें यही नाम प्रचलित है यथा---निस्सकिय निक्कंखिय निध्वितिगिच्छा अमहट्टीय । उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अह । 'पडिकमणा' । 'उववह'का संस्कृत रूप 'उपबृंह' होता है । 'उववूह'का अर्थ वृद्धि करना पोषण करना आदि है। इसमें पाप छिपाया नहीं जाता, किन्तु गुणकी इसलिये प्रशंसा की जाती है कि उस गुणको उत्तेजन मिले। वास्तव में इस अंगका यही अर्थ होना चाहिये । 'उपबृंहण' शब्द इसके लिये बहुत उपयुक्त और दोनों सम्प्रदायोंको मान्य है। दिगंबर सम्प्रदायमें 'उपगूहन' शब्द कैसे आया, इस विषयमें अभी कुछ नहीं कह सकता । जैनियोंका मूलसाहित्य प्राकृतमें था और जब वह संस्कृतमें आया तो वर्णविकारके अनेक नियमोंके कारण मूल शब्दोंके अनेक रूप बन गये । प्राकृतके एक शब्दके स्थानमें संस्कृतमें अनेक शब्द आये हैं। कुछ परिवर्तन ठीक हुए, कुछ बेठीक हुए ।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy