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________________ धर्मका उद्देश्य NnnnnnnnnnnnnnnnnnAAAAAAAAAAAAAAN ३-धर्मके अंश होनेसे वे स्वरूप भी धर्म कहलाते हैं । ४–प्रत्येक सम्प्रदाय अगर दूसरे सम्प्रदायको सिर्फ अविवक्षित करता है, उसका विरोध नहीं करता तो वह धर्म है, अन्य था अधर्म है । ५-दर्शन, इतिहास, भूगोल आदि धर्मशास्त्र नहीं हैं । ६-जिस प्रकार अंशसे अंशीका ज्ञान किया जाता है उसी प्रकार हम प्रत्येक सम्प्रदाय रूप अंशसे धर्मरूप अंशीका ज्ञान कर सकते हैं । शर्त यह है कि उसमें अनेकान्तस्याद्वाद-अर्थात् सर्व-धर्म-सम-भावका तत्त्व होना चाहिये । धर्मका उद्देश्य साधारण लोगोंकी मान्यता यह है कि धर्म परलोकके लिए है। यह बात मानी जा सकती है कि धर्मसे परलोक सुधरता है, परन्तु धर्मोकी उत्पत्ति लौकिक आवश्यकताका ही फल है । पारलौकिक फल तो उनका आनुषङ्गिक फल है । जैनशास्त्रके अनुसार जिस समय यहाँ भोगभूमि थी अर्थात् युगलियोंका युग था, उस समय यहाँपर कोई भी धर्म नहीं था, जैनधर्म भी नहीं था। इसका कारण यही है कि उस समय मनुष्यको कोई लौकिक कष्ट नहीं था। उस समय साम्यवाद इतने व्यापक रूपमें बा कि प्राकृतिक दृष्टिसे भी लोगोंमें कोई विषमता नहीं थी। जैन-शास्र कहते हैं कि उस समय स्त्री-पुरुषोंके शरीरकी दृढ़तामें भी विषमता नहीं थी। उस समय कोई राजा या अफसर नहीं था, वैयक्तिक सम्पत्ति नहीं थी, अत्याचार अनाचार आदि नहीं था; स्वामी-सेवकका भेद न था, अकालमृत्यु और बीमारी नहीं थी। जैन-शास्त्र उस
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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